अज्ञेय

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ज्ञानं नामोत्पत्तिविनाशरहितं नैरन्तर्यं ज्ञानमित्युच्यते।

उत्पत्ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं।लेकिन जिस ज्ञान को हम जानते हैं, उस ज्ञान से इसका कोई भी संबंध नहीं है। हम किसे ज्ञान कहते हैं उसे ठीक से समझ लें, तो ऋषि किसे ज्ञान कहता है उसे समझना आसान हो जाएगा। हमारा ज्ञान--पहली बात तो यह है--सदा किसी ज्ञेय का होता है; अकेला ज्ञान हमें कभी नहीं होता। हम सदा किसी वस्तु के संबंध में ज्ञान को उपलब्ध होते हैं; अकेला ज्ञान कभी नहीं होता। वृक्ष को जानते हैं, मनुष्य को जानते हैं, राह पर पड़े पत्थर को जानते हैं, आकाश के सूर्य को जानते हैं; लेकिन जब भी जानते हैं तो कुछ जानते हैं, जानना शुद्ध कभी नहीं जानते।

और जब भी हम कुछ जानते हैं तो उसे ऋषियों ने अशुद्ध ज्ञान कहा है; क्योंकि वह जो कुछ है, वह महत्वपूर्ण होता है, ज्ञान महत्वपूर्ण नहीं होता। आकाश में सूर्य को देखते हैं, सूर्य को जानते हैं, तो सूर्य महत्वपूर्ण होता है, जानना महत्वपूर्ण नहीं होता। हमारा यह जो ज्ञान है, अगर सारे विषय हम से छीन लिए जाएं तो तत्काल खो जाएगा; क्योंकि विषय के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह ज्ञान हम पर निर्भर नहीं है, विषय पर निर्भर है। अगर सारे विषय अलग कर लिए जाएं और चारों तरफ शून्य हो तो हमारा ज्ञान खो जाएगा; क्योंकि हमने ऐसा कोई ज्ञान तो जाना ही नहीं है जो अपने में ही ठहरा हुआ हो; हमारा सारा ज्ञान वस्तुओं में ठहरा हुआ है--ऑब्जेक्टस में। तो यह बिलकुल सीधा सा...सीधा सा, स्पष्ट सा विचार है कि अगर सारे पदार्थ अलग कर लिए जाएं तो हमारा ज्ञान भी खो जाएगा। यह तो बड़े मजे की बात है: इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान हममें निर्भर नहीं है, जो पदार्थ हम जानते थे उसमें निर्भर था। यह है हमारा ज्ञान। जब ब्रह्म को ज्ञान कहता है ऋषि तो ऐसे ज्ञान से प्रयोजन नहीं है; क्योंकि जो ज्ञान पर-निर्भर हो, उसको ऋषियों ने अज्ञान कहा है। जो ज्ञान दूसरे पर निर्भर है, अगर ज्ञान के लिए भी मैं स्वतंत्र और मालिक नहीं हूं तो फिर और किस चीज के लिए स्वतंत्रता और मालकियत हो सकती है? यह ज्ञान हमारे और सारे अनुभवों के साथ जुड़ा हुआ है। हमारे सारे अनुभव इस ज्ञान जैसे ही हैं। कोई प्रेम करने को न हो तो क्या आप उस समय प्रेम के क्षण में हो सकते हैं? कोई प्रेमी न हो, तो क्या आप प्रेम कर सकते हैं? शायद आप सोचेंगे, कर सकते हैं; लेकिन आपको खयाल होना चाहिए, तब भी आप तभी कर सकेंगे जब चित्त में आप पहले प्रेमी की कल्पना कर लें; नहीं तो नहीं कर सकेंगे। वह कल्पना सहारा बनेगी फिर भी। आप अकेले होकर प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं। तो ऐसा प्रेम भी क्या आपका स्वभाव होगा? ऐसा प्रेम भी दूसरे पर निर्भर हो गया। इसलिए प्रेमी जिस बुरी तरह गुलाम हो जाते हैं इस जमीन पर और कोई गुलाम नहीं होता--हालांकि प्रेम से मिलनी चाहिए मालकियत; प्रेम से हो जाना चाहिए व्यक्ति परम स्वतंत्र; क्योंकि प्रेम तो बड़ी संपदा है। लेकिन उस संपदा को हम जानते ही नहीं। हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह प्रेम सदा दूसरे पर निर्भर होता है। वह इतना निर्भर हो जाता है दूसरे पर कि प्रेम गुलामी बन जाती है। और प्रेम स्वतंत्रता है। तो हमारा प्रेम, और जिस प्रेम को स्वतंत्रता कहते हैं जीसस या बुद्ध, उसमें कोई संबंध नहीं है। मैंने कहा कि मैं आपको प्रेम करता हूं। अगर आप नहीं हैं तो मेरा प्रेम खो जाएगा, क्योंकि मेरा प्रेम एक संबंध है, जिसमें दो का जुड़ना जरूरी है; दो हों तो बीच में प्रेम का संबंध जुड़ जाएगा; एक हट जाए तो संबंध तत्काल गिर जाएगा। हम नदी के एक किनारे पर थोड़े ही पुल खड़ा कर सकते हैं! दूसरा किनारा चाहिए। पुल केवल बीच का संबंध है। लेकिन बुद्ध बैठे हैं एकांत में एक वृक्ष के तले, नहीं है कोई चारों तरफ--इस समय भी उनका प्रेम उतना ही है जब पास से हजारों लोग गुजरते हों। इस प्रेम में रत्ती भर भी भेद नहीं है। यह प्रेम संबंध नहीं है, यह बुद्ध की अवस्था है। फूल को देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है; सूरज को डूबते देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है; लेकिन हमने क्या कभी ऐसा सौंदर्य जाना है जो किसी वस्तु पर निर्भर न हो--सीधा, शुद्ध सौंदर्य हो? नहीं, हमने ऐसा कोई सौंदर्य नहीं जाना। हमारी सब अनुभूतियां पर-निर्भर हैं; और इन्हीं अनुभूतियों का हम जोड़ हैं। और जो व्यक्ति सिर्फ जोड़ है बिना अनुभूतियों के उसे उस आत्मा का कोई अनुभव नहीं होगा जो कि परम स्वतंत्र है। तो जिस ज्ञान को ऋषि कहते हैं: ब्रह्म ज्ञान है, उस ज्ञान को हम समझें कि वह ज्ञान क्या है। तो पहली तो बात उस ज्ञान की यह है कि वह ज्ञेय पर निर्भर नहीं है; वह किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है। जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर होता है तो ज्ञान एक संबंध होता है। और जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर नहीं होता तो ज्ञान एक अवस्था होता है।  बुद्ध जैसा व्यक्ति भी प्रेम से भरा है...वही सच में प्रेम से भरा है, क्योंकि उसके प्रेम को छीना नहीं जा सकता; वह अकेला भी उतना ही प्रेमपूर्ण है। यह प्रेम सेतु नहीं है, संबंध नहीं है, यह प्रेम चित्त की अवस्था है; यह चैतन्य की अवस्था है। जब ब्रह्म को कहा ज्ञान, या परम आत्मा को कहा ज्ञान तो उसका अर्थ है कि ज्ञान स्वभाव है; वह कोई संबंध नहीं है। संबंध तो उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है, सिर्फ स्वभाव उत्पन्न नहीं होता और विनष्ट नहीं होता।

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