सहजो

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धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार! 

जीवन की हार जब पूरी होती है तभी परमात्मा की सुध आनी शुरू होती है। जब जीवन पूरी तरह पराजित होता है, तुम चारों खाने चित्त गिर गए होते हो, तब तुम्हारी आंख आकाश की तरफ उठती है। अन्यथा आदमी कुएं के चांद को पकड़ने में लगा रहता है। नहीं पकड़ पाता तो सोचता है और थोड़ी कुशलता चाहिए। लेकिन परमात्मा की तरफ की यात्रा का पहला कदम जब तक पूरा न हो जाए, तब तक परमात्मा एक शाब्दिक बातचीत रहता है। जब तक संसार व्यर्थ न हो, तब तक परमात्मा सार्थक नहीं हो सकता। दो दिन पहले एक मित्र मेरे पास थे। अपने बेटे को लेकर आए थे। कहने लगे बेटा होशियार है बहुत। और उसने संन्यास ले लिया यह भी अच्छा किया। लेकिन दोनों सम्हालने चाहिए संसार भी और संन्यास भी। इस जगत में भी सफलता पानी चाहिए और उस जगत में भी। ऊपर से देखने पर बात बिलकुल ठीक लगती है कि इस जगत में भी सफलता मिलनी चाहिए, उस जगत में भी। लेकिन जब तक तुम्हें इस जगत की सफलता सफलता दिखाई पड़ती है तब तक उस जगत की सफलता की तरफ तो तुम चेष्टा ही न करोगे। इस बात से मैं राजी हूं कि संसार छोड़ कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार में तुम परिपूर्ण रहते हुए संन्यस्त हो सकते हो। लेकिन संसार में रहते हुए एक बात के प्रति तो तुम्हें जाग ही जाना होगा कि संसार की सफलता सफलता नहीं है। वह चांद कुएं का है। वह छाया है। संसार में रहते हुए ही संन्यस्त हुआ जा सकता है। और कोई उपाय नहीं। जाओगे भी कहां? सभी तरफ संसार है। जो है, सभी तरफ संसार फैला है। भागोगे कहां? भागने को कोई जगह नहीं है। जागने को जगह है। जागने का अर्थ इतना होता है कि तुम यह देख लेना कि यह जो दौड़ संसार की है वहां चांद असली नहीं है। अगर कामचलाऊ चलना भी पड़े तो चलते रहना। अगर भीड़ वहां जाती हो तो भीड़ के साथ खड़े रहना, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि भीड़ को नाहक नाराज करने से भी क्या सार है। और उनको तो वहां सफलता दिखाई पड़ रही है। यही तो उस फकीर ने उस बच्चे के सिर पर हाथ रख कर किया। बच्चा है, नाहक रुलाने से भी क्या फायदा है। इतने से तो खुश हो जाता है कि छाया पकड़ ली। तो एक तरकीब कर दी कि सिर हाथ पर रख दिया। छाया पकड़ में आ गई। लेकिन तुम्हें तो जाग ही जाना चाहिए कि संसार की कोई सफलता सफलता नहीं है। सब सफलता गंवाया गया श्रम है। सब सफलता खोया गया समय है। सब सफलता अपने को बेचना है और कूड़ा-करकट को खरीद लाना है। एक दिन तुम पाओगे बाजार तो सब खरीद के घर में आ गया, तुम बाजार में कहीं खो गए। तुम तो न बचे, और सब बच गया। संसार की क्षणभंगुरता स्पष्ट हो जाए तो फिर परमात्मा की तरफ आंख उठती है, आंख खुलती है। और वैसी जो आंख है--उसको ‘निरगुन सरगुन एक प्रभु’--उसको तो निर्गुन और सगुण एक ही दिखाई पड़ता है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई का परमात्मा एक ही दिखाई पड़ता है। जिनको ये परमात्मा अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, समझ लेना कि उनकी अभी आंख परमात्मा की तरफ नहीं उठी। क्योंकि परमात्मा तो एक है। चांद तो एक है, कुएं हजार हैं। और हजार कुओं में हजार प्रतिबिंब बनते हैं। कोई मुसलमान का कुआं है, उसमें मुसलमान का प्रतिबिंब है। कोई हिंदू का कुआं है, उसमें हिंदू का प्रतिबिंब है। किसी में गंदा पानी भरा है, किसी में स्वच्छ पानी भरा है। तो प्रतिबिंब में थोड़ा फर्क भी पड़ता है। कोई कुआं संगमरमर से बना है। कोई कुआं साधारण मिट्टी का ही है; कुछ भी उसमें पत्थर नहीं लगे हैं। तो भी प्रतिबिंब में थोड़ा फर्क पड़ता है। लेकिन जिसका प्रतिबिंब है, वह एक है। प्रतिबिंब अनेक हो सकते हैं, लेकिन सत्य एक है। तीन शब्द सहजो प्रयोग कर रही है: दृष्टि, समझ और विचार। कुछ लोग विचार से पाने की कोशिश करते हैं। वे उपलब्ध नहीं हो पाते। दार्शनिक बन जाते हैं। फिलॉसफी पैदा हो जाती है। बड़ा तत्व का ऊहापोह करते हैं। उनसे अगर तुम विचार की बात करो तो वे विचार का बड़ा फैलाव खड़ा कर देते हैं। लेकिन उनके विचार के जाल में परमात्मा की मछली कभी फंसती नहीं। जाल उनका कितना ही बड़ा हो मछली कभी पकड़ में नहीं आती।फिर कुछ लोग हैं जो समझदारी से उसे पाने की कोशिश करते हैं। समझ आती है जीवन के अनुभव से। जीवन के अनंत अनुभव हैं। उन सारे अनुभवों का जो निचोड़ है उसका नाम समझ है। जवान आदमी परमात्मा को विचार से पाना चाहता है। बूढ़े समझदारी से। वे कहते हैं, हमने जीवन देखा है। मगर जीवन तो छाया है। छाया का अनुभव भी सत्य तक कैसे ले जाएगा? विचार से तो मुक्त होना ही है, समझ से भी मुक्त होना है। लेकिन परछाईं के चांद सत्य नहीं हैं। दिखाई पड़ते हैं। इसलिए ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। परमात्मा है सत्य। संसार है उसकी परछाईं सत्य की छाया का नाम माया है।

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