प्रीति और कामना

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प्रीति तो शुद्ध भाव-दशा है। प्रीति यानी परमात्मा। वही जीसस ने कहा है: प्रीति अर्थात परमात्मा। प्रीति तो शुद्ध दशा है। जैसे प्रकाश जले--शुद्ध--किसी चीज पर न पड़े, ऐसी प्रीति है। फिर प्रीति जब किसी पर पड़ती है, किसी विषय पर पड़ती है, तो उसके रूप बनने शुरू हो जाते हैं। जैसे जल को हम किसी बर्तन में रख देते हैं तो बर्तन का आकार ले लेता है। ऐसी ही शुद्ध प्रीति जब किसी पात्र में गिरती है, तो पात्र का आकार ले लेती है। अगर पत्नी से हो तो प्रेम; अगर बेटे से हो तो स्नेह; अगर गुरु से हो तो श्रद्धा। मगर ये सब हैं प्रीति के ही रूप। और सभी के भीतर एक ही ऊर्जा आंदोलित हो रही है। लेकिन जिस विषय पर पड़ती है, उस विषय की छाया भी पड़ने लगती है।  प्रेम में कामना बहुत ज्यादा है। पति-पत्नी का प्रेम है, उसमें कामना बड़ी मात्रा में है। स्नेह में उतनी बड़ी मात्रा में नहीं है, लेकिन थोड़ी है। अपने बेटे से, अपनी बेटी से जो प्रेम है, जो लगाव है, उसमें भी आकांक्षा छिपी है--कल बेटा बड़ा होगा, जो महत्वाकांक्षाएं मैं पूरी नहीं कर पाया, यह पूरी करेगा। बेटे के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने की इच्छा किस बाप की नहीं है? मैं धन नहीं कमा पाया, कमाना चाहता था, बेटा कमाएगा। मैं मर जाऊंगा, लेकिन बेटा मेरे नाम को बचा रखेगा। इसीलिए तो लोग सदियों से बेटे के लिए दीवाने रहे हैं। बेटी पैदा होती है तो इतने प्रसन्न नहीं होते, क्योंकि उससे नाम नहीं चलेगा। बेटा पैदा होता है, उससे नाम चलेगा। और नाम चलाने की आकांक्षा कामना है, अहंकार की यात्रा है--मेरा नाम रहना चाहिए! जैसे तुम्हारा नाम न रहने से दुनिया का कुछ बिगड़ जाएगा। तुम रहो कि न रहो, दुनिया का कुछ बिगड़ता नहीं। तुम्हारे नाम का मूल्य क्या है? लेकिन लोग कहते हैं--नहीं, चला आया, चलता रहे! एक तरह की परोक्ष अमरता की आकांक्षा है कि पता नहीं हम तो बचे, न बचे, लेकिन कुछ तो बचेगा--हमारा अंश सही, हमारा बेटा सही, है तो हमारा खून। फिर इसके बेटे होंगे, इसी बहाने जीएंगे। मगर जीएंगे। ऐसी जीवेषणा है। तो कामना तो है ही। पति-पत्नी जैसी प्रगाढ़ वासना जैसी नहीं है, मगर फिर भी महत्वाकांक्षा है। उससे भी कम रह जाती है गुरु के साथ जो श्रद्धा का संबंध है, उसमें। और भी कम हो गई। पर फिर भी है, क्योंकि गुरु से भी कुछ पाने की आकांक्षा है--मोक्ष, ध्यान, समाधि--कुछ पाने की आकांक्षा है। मगर शुद्ध होती जा रही है, कम होती जा रही है। पति-पत्नी के प्रेम में सर्वाधिक, पुत्र-पुत्रियों के प्रेम में उससे कम, श्रद्धा में बहुत न्यून, एक प्रतिशत रही जैसे। पति-पत्नी के प्रेम में निन्यानबे प्रतिशत थी। फिर जब एक प्रतिशत भी शून्य हो जाता है, तो श्रद्धा का भी अतिक्रमण हो गया--तब भक्ति। भक्ति में कामना जरा भी नहीं रहती। अगर भक्ति में कामना रहे, तो भक्ति नहीं है। अगर तुमने परमात्मा से कुछ मांगा, तो चूक गए--कुछ भी मांगा तो चूक गए। तुमने कहा कि मेरी पत्नी बीमार है, ठीक हो जाए; कि मेरे बेटे को नौकरी नहीं लगती, नौकरी लग जाए; कि तुम चूक गए--यह प्रार्थना न रही, यह वासना हो गई। प्रार्थना तो तभी है जब कोई भी मांग न हो, कोई अपेक्षा न हो। प्रार्थना शुद्ध धन्यवाद है, मांग का सवाल ही नहीं है। जो दिया, वह इतना ज्यादा है कि हम अनुगृहीत हैं। जो दिया, वह मेरी पात्रता से ज्यादा है--ऐसी कृतज्ञता का नाम भक्ति है। भक्ति सौ प्रतिशत प्रीति है। जरा भी धुआं नहीं रहा।

आग तुम जलाते हो, लकड़ी तुम जलाते हो। तो तुमने देखा, अलग-अलग लकड़ियों से अलग-अलग धुआं उठता है। मगर तुमने कारण देखा? कारण होता है: जो लकड़ी जितनी गीली होती है, उतना धुआं उठता है। अगर लकड़ी बिलकुल गीली न हो, आर्द्रता हो ही न लकड़ी में, तो धुआं बिलकुल नहीं उठेगा। धुआं लकड़ी से नहीं उठता, लकड़ी में छिपे पानी से उठता है। तो गीली लकड़ी जलाओ तो बहुत धुआं उठता है।
पति-पत्नी के बीच गीली लकड़ी जलती है। पिता-बेटे के बीच लकड़ी थोड़ी सूखी है, मगर अभी भी धुआं उठता है। गुरु-शिष्य के बीच करीब-करीब लकड़ी सूखी है, जिनके पास देखने को आंखें हैं उनको ही धुआं दिखाई पड़ेगा, नहीं तो दिखाई भी नहीं पड़ेगा, अगर आंख थोड़ी कमजोर है और चश्मा लगा है तो दिखाई नहीं पड़ेगा--एक प्रतिशत बचा है, निन्यानबे प्रतिशत सूखापन है। और जब परमात्मा और तुम्हारे बीच प्रीति जलती है तो धुआं उठता ही नहीं--निर्धूम अग्नि होती है।  इस परम स्थिति के दो रूप हो सकते हैं। एक का नाम ध्यान, एक का नाम भक्ति। अगर यह परम प्रीति की दशा, निर्धूम दशा परमात्मा की तरफ उन्मुख हो, समग्र के प्रति उन्मुख हो, तो भक्ति इसका नाम है। और अगर यह किसी के प्रति उन्मुख न हो, अंतर्मुखी हो, अपने में ही गिर रही हो--यह प्रीति का झरना स्वयं में ही गिर रहा हो, कहीं न जा रहा हो; इसकी कोई दिशा न हो, तो ध्यान। इन दो ही मार्गों से आदमी ने पाया है। बुद्ध ने ध्यान से, मीरा ने भक्ति से। दोनों की शुद्ध दशाएं हैं। बुद्ध की प्रीति अपने ही भीतर उमगती है--लबालब--झील बन गई है; मीरा की भक्ति नाचती है और सागर की तरफ चलती है--सरिता बन गई है। पर दोनों ही हालत में प्रीति शुद्ध हो गई है। भक्त परमात्मा को सब तरफ देखता--पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण; ऊपर, नीचे; सब दिशाओं में, सब आयामों में। भक्त भगवान से घिरा होता है। भक्त स्वयं तो मिट गया होता है, भगवान ही बचता है। यह प्रीति की एक दशा।

ध्यानी के लिए भगवान होता ही नहीं। प्रीति की समग्रता इतनी गहरी हो गई होती है कि कोई पर नहीं बचता, परमात्मा कैसे बचेगा? कोई पर नहीं बचता, स्व ही होता है। उस स्व की परम स्थिति में भी मुक्ति है। दोनों हालत में एक घटना घट जाती है। भक्त शून्य हो जाता है अपने तरफ और परमात्मा पूर्ण हो जाता है; और ध्यानी अपने में पूर्ण हो जाता है, परमात्मा शून्य हो जाता है। पूर्ण और शून्य का मिलन हो जाता है--दो ढंग से। और जहां पूर्ण और शून्य का मिलन है, वहीं मुक्ति है, वहीं मोक्ष है। सब तुम पर निर्भर है कि तुम्हारा प्रेम कहां उलझा है, किससे लगा है। तुम उतना ही समझ सकते हो जितनी तुम्हारी प्रीति है, जहां तुम्हारी प्रीति है। प्रीति को मुक्त करो। अगर श्रद्धा जग गई है, तो भक्ति में छलांग लगाओ। देखने की आंख चाहिए। प्रीति को कामना से मुक्त करो! कामना के कारण ही देखने की आंख नहीं मिलती; कामना अंधा बनाती है; कामना अंधी है।

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