एकांत
नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में;
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में;
प्रलय में मेरा पता पदचिह्न जीवन में,
शाप भी हूं जो बन गया वरदान बंधन में,
कूल भी हूं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूं!
नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूं,
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूं;
फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूं,
एक होकर दूर तन से छांह वह चल हूं;
दूर तुम से हूं अखंड सुहागिनी भी हूं!
आग हूं जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के,
शून्य हूं जिसको बिछे हैं पांवड़े पल के;
पुलक हूं वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूं वही प्रतिबिंब जो आधार के उर में,
नील-घन भी हूं सुनहली दामिनी भी हूं!
नाश भी हूं मैं अनंत विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी;
तार भी आघात भी झंकार की गति भी
पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी;
अधर भी हूं और स्मित की चांदनी भी हूं!
विश्वास ही वातावरण है।
और अस्तित्व रहस्यपूर्ण गुलाब है उसका खिलना, उसकी सुगंध को फैलाना।
रहस्यवादी गुलाब बस उस आदमी का प्रतीक बन गया जिसका अस्तित्व अब सुप्त नहीं है, सोया नहीं है, बल्कि पूरी तरह से जाग चुका है और उसने अपनी सभी पंखुड़ियाँ खोल ली हैं और जो सत्य, सुंदर, अच्छा है - अस्तित्व की महिमा के प्रति संवेदनशील हो गया है। उसका अस्तित्व शाश्वत और अमर का हिस्सा बन गया है। वह अब वैसा आदमी नहीं रहा जैसा वह पहले हुआ करता था। उसने अपना असली रूप, अपना मूल चेहरा पा लिया है।
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