राजनीति और धर्म

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राजनीति का अर्थ होता है दूसरों के ऊपर मालकियत की आकांक्षा। और धर्म राजनीति से बिलकुल विपरीत है। धर्म का अर्थ होता है: अपने पर मालकियत की आकांक्षा। ये दोनों दिशाएं भिन्न हैं। क्योंकि राजनीति का स्वाद शराब जैसा स्वाद है; लग जाए तो छोड़े नहीं छूटता। बहुत मुश्किल हो जाता है। हजार बहानों से लौट-लौट आता है। तुम अगर राजनेता हो और तुम अगर धर्म में भी प्रविष्ट हो जाओ तो वहां भी तुम कुछ न कुछ राजनीतिक दांव-पेंच करोगे। यह पीछे के दरवाजे से आ जाएगा। आखिर धर्म में भी तो खूब राजनीति चलती है। कितने मंदिर हैं, कितनी मस्जिद हैं, कितने गुरुद्वारे हैं, जहां सिवाय राजनीति के और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर राजनीति चल रही है। तो तुम धर्म में भी आ जाओगे, इससे कुछ पक्का नहीं है कि राजनीति से छूट जाओगे। राजनीति से छूटने के लिए बड़ी सजगता की जरूरत है। वे चालबाजियां जो तुम्हें आ गईं, दांव-पेंच जो तुमने सीख लिए, उनसे बचना बहुत मुश्किल हो जायेगा। धर्म का पहला पाठ है: श्रद्धा। राजनीति का पहला पाठ है: संदेह। जो अपने हैं, उन पर भी संदेह रखना, क्योंकि वे ही काटेंगे, वे ही तुम्हारी गर्दन काटेंगे। जो अपने नहीं हैं, वे तो इतने दूर होते हैं कि गर्दन काटने का मौका उनको मिल नहीं सकता। और राजनीति में कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं होती। ध्यान रखना, संदेह के लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं होती। श्रद्धा के लिए बड़ी प्रखर बुद्धिमत्ता चाहिए। दूसरों पर हुकूमत करने के लिए कोई बहुत ज्यादा मेधा की, प्रतिभा की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि दूसरे तो गुलाम बनने को तैयार ही बैठे हैं। सदियों से उन्हें गुलाम बनाया गया है। वे तो राह ही देख रहे हैं कि कोई आए और गुलाम बनाए। उन्हें कोई गुलाम न बनाए तो वे बेचैन होने लगते हैं। उन्हें तो किसी न किसी का जिंदाबाद, किसी न किसी का नारा लगाना है। उनके लिए तो कोई नारा लगाने वाला चाहिए। कोई नारा लगवाए उनसे, जय-जयकार करवाए, तो उनके दिल को शांति मिलती है। जब तक कोई उनकी छाती पर न बैठे, उनको लगता है कि जिंदगी बेकार। सदियों से गुलामी सिखाई गई है, इसलिए लोग तो गुलाम होने को तैयार हैं। लेकिन स्वयं की मालकियत कठिन मामला है। बड़ी प्रतिभा चाहिए! बड़ी पैनी प्रतिभा चाहिए! स्वयं की मालकियत का अर्थ है: अपने अचेतन से मुक्त होना, अपने अंधकार से मुक्त होना, अपने अहंकार से मुक्त होना। राजनीति तो अहंकार को भरती है और धर्म अहंकार से छुटकारा है। राजनीति में तो अहंकार का पोषण है। कौन नहीं चाहता अहंकार का पोषण? हर एक चाहता है! मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनीति का जन्म होता है इनफीरियारिटी कांप्लेक्स में। वह जो हीनता की ग्रंथि है, जिस आदमी को लगता है कि मैं हीन हूं, वह राजनीति में चला जाता है। हीनों के अतिरिक्त राजनीति में कोई जाता नहीं।

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