सुख दुख

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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्‌।। 

 ‘सब सुखी हों, सब निरोग हों, सब कल्याण को प्राप्त हों, कोई भी दुखभागी न हो।’ 

जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो चाहा है कि सभी जान लें। जिन्होंने पाया है, उन्होंने प्रार्थना की है प्रभु को कि सबको मिले। स्वाभाविक है कि जिन्होंने आनंद को पीआ है, वे जब तुम्हें दुख में डूबा हुआ देखते हैं, तो हैरान भी होते हैं, पीड़ित भी होते हैं। हैरान इसलिए होते हैं कि दुख का कोई भी कारण नहीं और तुम दुखी हो! दुख तुम्हारे झूठ आधारों पर निर्भर है। दुख के तुम स्रष्टा हो। कोई और उसे बनाता नहीं; तुम ही रोज सुबह से सांझ मेहनत करते हो। जिस चिता में तुम जल रहे हो, उसकी लकड़ियां तुमने जुटाई हैं। उसमें आग भी तुमने लगाई है। चीखते-चिल्लाते भी हो कि कैसे इस जलन से छूटूं, लेकिन हटते भी नहीं वहां से! सरकते भी नहीं! कोई सरकाना चाहे, तो दुश्मन मालूम होता है। कोई हटाना चाहे, तो तुम उससे झगड़ने को तैयार हो। तुम्हारी चिता है! तुम्हारी संस्कृति है! तुम्हारा धर्म है! तुम्हारे संस्कार हैं--कैसे तुम छोड़ दोगे! तुम्हारे शास्त्र हैं, कैसे तुम छोड़ दोगे! छाती से लगाए हुए हो अपनी मौत को। और जब मैं कहता हूं, अपनी मौत को, तो मेरा अर्थ है: जो भी मर चुका है, उसे जब तक तुम छाती से लगाए हो, तब तक सड़ोगे, परेशान होओगे। आप्तपुरुष प्रार्थना करेंगे, आशीष देंगे। यूं तो वर्षा भी होती है, लेकिन घड़ा उलटा रखा हो, तो वर्षा क्या करे! मेघ तो आए थे कि भर देते, मगर घड़ा उलटा रखा था। और घड़ा सीधा होना न चाहे! उसके उलटे होने में भी मोह-आसक्तियां बन गई हों। उलटे होने को ही उसने जीवन-चर्या समझ लिया हो! उलटा होना ही उसकी दृष्टि हो, उसका दर्शन हो। उसका भरोसा हो कि शीर्षासन करने से ही परमात्मा मिलता है, तो लाख बरसा करें बादल, चमकें बिजलियां, लेकिन घड़ा खाली का खाली रहेगा। फिर कुछ घड़े हैं, जो उलटे भी नहीं हैं, मगर फूटे हैं। और उन्होंने फूटे होने में अपने न्यस्त स्वार्थ जोड़ रखे हैं। फूटे होने में वे गौरव का अनुभव करते हैं! छिद्रों को वे आभूषण मानते हैं! तो लाख बरसा करें बादल, और घड़ा सीधा भी रखा हो, लेकिन सछिद्र हो, तो कैसे भरेगा? भरता भी रहेगा और खाली भी होता रहेगा। आप्तपुरुष तो आशीष ही देते हैं। उनके पास और कुछ देने को है भी नहीं। उनसे तो फूल ही झरते हैं। वे तो तुम्हारे लिए प्रार्थनाओं से ही भरे हुए हैं। वे तो चाहते हैं कि तुम्हारे जीवन में सुगंध उड़े, गीत जगें, नृत्य हो। तुम्हारे जीवन में हजार-हजार कलम खिलें। तुम्हारे जीवन में रसधार बहे। लेकिन तुम बहने दो, तब न! तुम तो हर तरह से अड़ंगा खड़ा करते हो। और तुम्हारे बिना कोई जबरदस्ती तुम्हें सुखी नहीं कर सकता। यह प्रार्थना तो प्यारी है: ‘सब सुखी हों।’ लेकिन तुम्हारे स्वार्थ तो दुख से जुड़े हैं। तुम कैसे सुखी होओगे! तुम मेरी बात सुन कर शायद चौंको। लेकिन मैं दोहरा दूं, ताकि तुम समझ लो ठीक से। तुम्हारे स्वार्थ दुख से जुड़े हैं। तुम्हारा सारा जीवन दुख में जड़ें जमाए बैठा है। तुम सुखी नहीं होना चाहते, हालांकि तुम कहते हो कि मैं सुखी होना चाहता हूं। मगर तुम्हारे सुखी होना चाहने का जो ढंग है, वह भी तुम्हें सिर्फ दुखी करता है, और कुछ भी नहीं। क्योंकि सुखी होने की पहली शर्त है: सुख को मत चाहो। अब तुम थोड़ी मुश्किल में पड़ोगे। इस शर्त को जो पूरी करे, वही सुखी हो सकता है। सुख को मत चाहो। क्योंकि जिसने सुख चाहा, वह दुखी हुआ। इस दुनिया में सारे लोग सुख चाहते हैं। कौन है जो सुख नहीं चाहता! लेकिन फिर सारे लोग दुखी क्यों हैं? सुख की चाह में ही दुख के बीज छिपे हैं। सुख को चाहता कौन है? पहली तो बात: दुखी आदमी चाहता है। जो दुखी है, वह सुख चाहता है। दुखी क्यों है? यह तो कभी नहीं सोचता। लेकिन सुख चाहता है। दुखी है, तो कारण होंगे। दुखी है, तो बीज उसने नीम के बोए होंगे; हां, चाहता है कि आम लग जाएं! मगर उसी चाह से थोड़े ही आम लगेंगे। बीज अगर नीम के बोता है और चाह अगर आम की करता है, तो पागल है। तो रोज-रोज दुखी होगा। रोज-रोज विषाद से भरेगा। क्योंकि जब भी फल लगेंगे, कड़वे नीम के ही फल लगेंगे। बीज ही नीम के तुम बो रहे हो। सर्कस नहीं है योग। योग शब्द का अर्थ समझो। योग शब्द का अर्थ होता है: मिलन। परमात्मा से मिलन। उसकी कला। उसकी कला प्रेम है। उसकी कला ये योगासन नहीं हैं। यह सिर के बल खड़े होना कोई परमात्मा से नहीं मिला देगा। कोई परमात्मा तुम जैसा घनचक्कर नहीं है! कि सिर के बल खड़े हो गए, तो बड़ा प्रसन्न हो जाए! अगर मिलने भी आ रहा होगा, तो लौट जाएगा कि इस उलटी खोपड़ी से क्या मिलना! पहले खोपड़ी तो सीधी करो! कम से कम आदमी की तरह खड़े होना तो सीखो! यह तो जानवर भी नहीं करते शीर्षासन, जो तुम कर रहे हो। और अगर परमात्मा को शीर्षासन ही कराना था, तो सिर के बल ही खड़ा करता न! तुम्हें पैर के बल खड़ा क्यों किया है! परमात्मा ने कुछ भूल की है, जिसमें तुम्हें सुधार करना है? परमात्मा ने तुम्हारे भीतर आनंदमग्न होने की पूरी क्षमता दी है। मगर तुम्हारा समादर गलत है, रुग्ण है। उस कारण सुख कैसे हो! सुखी होने के लिए जीवन के सारे आधार बदलने आवश्यक हैं! कृपणता में सुख नहीं हो सकता। सुख बांटने में बढ़ता है; न बांटने से घटता है। संकोच से मर जाता है; सिकोड़ने से समाप्त हो जाता है। फैलने दो बांटो। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिनको तुम आमतौर से गलत आदमी समझते हो, वे गलत न हों। ईसाई कहते हैं कि जीसस ने इसलिए जन्म लिया कि सारी पृथ्वी को मुक्त कर देना है। वह तो ठीक, उन्होंने इसलिए जन्म लिया, लेकिन पृथ्वी मुक्त कहां हुई! यह कोई नहीं पूछता! हिंदू कहते हैं कि भगवान अवतार लेते हैं। और कृष्ण ने कहा गीता में कि आऊंगा-आऊंगा; बार-बार आऊंगा--जब-जब धर्म की हानि होगी। भैया! कब होगी? बहुत हो चुकी, अब आ जाओ! हे कृष्ण कन्हैया! अब आ जाओ! लेकिन मजा यह है कि जब आए थे, तब कितना अधर्म मिटा पाए थे! तो अब क्या खाक मिटा लोगे! आदमी तबसे अब और होशियार हो गया है। तब नहीं मिटा पाए, तो अब क्या मिटा पाओगे! कहते तो हो कि जब अंधकार होगा, तो आऊंगा। जब पाप बढ़ जाएगा, तो आऊंगा। साधुओं की रक्षा के लिए आऊंगा! मगर सदियां-सदियां बीत गईं। साधु--सच्चे साधु सदा सताए गए; झूठे साधु सदा पूजे गए। और नहीं तुम आए! और आते भी तो क्या करते? जब आए थे, तब क्या कर लिया था? और ऐसा नहीं कि तुमने चेष्टा न की हो। वह मैं न कहूंगा। चेष्टा की थी, मगर परिणाम महाभारत हुआ! एक बात तो समझ ही लो तुम, गांठ बांध लो, प्राणों पर खोद कर रख लो--भूलना मत, कि तुम्हारे बिना सहयोग के स्वयं परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता है। सब आशीष व्यर्थ चले जाएंगे। तुमने अगर आंख बंद करने की जिद्द कर रखी है, तो उगता रहे सूरज, आते रहें चांद-तारे--क्या करेंगे बेचारे! सूरज द्वार पर दस्तक भी देता रहे, तो भी तुम कानों में सीसा पिघला कर बैठे हुए हो। तुम सुनते नहीं। तुमने अगर जीवन को गलत ढांचे में ढाला हुआ है, तो कोई तुम्हें ठोक-पीट कर ठीक-ठाक कर दे; वह जा भी नहीं पाएगा कि तुम फिर अपने ढांचे पर आ जाओगे! स्वास्थ्य का अर्थ सिर्फ निरोग ही नहीं होता। स्वास्थ्य का गहरा अर्थ है। उसका ऊपरी अर्थ है कि तुम्हारा शरीर स्वस्थ हो, निरोग हो। लेकिन उसका भीतरी अर्थ है -निरामय। उसका भीतरी अर्थ है कि तुम स्वयं में स्थित हो जाओ। हमारा शब्द ‘स्वास्थ्य’ बड़ा बहुमूल्य है। शरीर के लिए उसका अर्थ होता है: शरीर की जो प्रकृति है, शरीर का जो धर्म है, उसमें थिर हो जाए शरीर। जब शरीर अपनी प्रकृति से च्युत हो जाता है, तो दुख भोगता है। जब शरीर अपनी प्रकृति में ठहर जाता है, तो सुख भोगता है। प्रकृति में ठहर जाने में सुख है; प्रकृति से हट जाने में विकृति है, दुख है। यह जो विराट विश्व है, इसके साथ एक तल्लीनता सध जाए, तो सुख है! इसके साथ टूट हो जाए, तो दुख है। और ऐसी ही बात भीतर के जगत के संबंध में भी सच है। और तब स्वास्थ्य के बड़े गहरे अर्थ प्रकट होते हैं। दुनिया की किसी भाषा में स्वास्थ्य का वैसा गहरा अर्थ नहीं है--स्वयं में स्थित हो जाना। जब तुम अपनी आत्मा में ठहर जाते हो, तब निरामय हुए। अब सब रोग गए, असली रोग गए। शरीर के रोग तो ठीक ही हैं। शरीर है--खुद ही चला जाने वाला है। उसके रोग भी चले जाएं, तो क्या फर्क पड़ता है! स्वस्थ शरीर भी चले जाएंगे, अस्वस्थ शरीर भी चले जाएंगे। लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ बैठा है और भी, जो अमृत है; जो न आता, न जाता। उसमें जो ठहर गया, वह परम स्वास्थ्य का भागीदार हो जाता है। उस परम स्वास्थ्य को ही धर्म कहते हैं। स्वयं की प्रकृति में ठहर जाने का नाम धर्म है। और धर्म को जान लेना ही सुख दुख के पार होजना है ।

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