ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्मचर्य शब्द में ही छिपा हुआ है: ब्रह्म जैसी चर्या; ईश्वरीय आचरण; दिव्य आचरण। दमित व्यक्ति का आचरण दिव्य तो हो ही नहीं सकता। अदिव्य हो जाएगा; पाशविक हो जाएगा। पशु से भी नीचे गिर जाएगा। दिव्य आचरण तो एक ही ढंग से हो सकता है कि तुम्हारे भीतर जो काम की ऊर्जा है, वह ध्यान से जुड़ जाए। ध्यान और काम तुम्हारे भीतर जब जुड़ते हैं तो ब्रह्मचर्य फलित होता है। ब्रह्मचर्य फूल है ध्यान और काम की ऊर्जा के जुड़ जाने का। ध्यान अगर अकेला हो और उसमें काम की ऊर्जा न हो, तो फूल कुम्हलाया हुआ होगा; उसमें शक्ति न होगी। और अगर काम अकेला हो, उसमें ध्यान न हो, तो वह तुम्हें पतन के गर्त में ले जाएगा। तुम जिनको धार्मिक कहते हो, जिनको तुम महात्मा कहते हो, कभी सोचो भी, इनके भीतर कहीं भी कोई प्रतिभा का लक्षण दिखाई पड़ता है? कोई मेधा दिखाई पड़ती है? और अगर मेधा ही न हो, तो ब्रह्मचर्य नहीं है, यह समझ लेना। क्योंकि ब्रह्मचर्य का और क्या सबूत हो सकता है? सबसे बड़ा सबूत होगा प्रतिभा की अभिव्यक्ति; प्रतिभा के हजार-हजार फूल खिल जाना; प्रतिभा के कमल खुल जाना। उनके कृत्य में भी प्रतिभा होगी, उनके उठने-बैठने में, चलने-फिरने में भी। इसलिए चर्या! चलना-फिरना, उठना-बैठना, उनके जीवन के हर एक कृत्य में तुम एक धार पाओगे, एक चमक पाओगे, एक ओज पाओगे।
‘सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।’
यह आत्मा अभी मिल जाए, मिली ही हुई है। बस, इतना ही चाहिए कि तुम सत्य को जान लो शून्य में। जीवन के सुख-दुख में सम-भाव रखो। तप को पहचान लो। कूड़ा-करकट, उधार ज्ञान हटा दो, ताकि जो जैसा है, उसे वैसा ही देख सको। सम्यक ज्ञान फलित हो। और तुम्हारे भीतर जो शरीर की ऊर्जा है, काम-ऊर्जा, और जो तुम्हारी आत्मा की ऊर्जा है, ध्यान-ऊर्जा--काम और ध्यान का मिलन हो जाए। काम और राम का तुम्हारे भीतर मिलन हो जाए, तो बस, यह आत्मा अभी मिली, इस क्षण मिली।
‘अंतःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो।’
तत्क्षण तुम जान सकोगे कि इसी शरीर में, इसी शरीर के भीतर वह ज्योति छिपी है, जो परम शुभ्र है।
‘यं पश्यंति यतयः क्षीणदोषाः।’
ऐसा उन्होंने देखा है, जिन्होंने सारे दोषों से अपने को मुक्त कर लिया है। और ये ही वे दोष हैं। विचार दोष है; इसके कारण तुम शून्य नहीं हो पाते। चुनाव दोष है; उसके कारण तुम सम नहीं हो पाते। उधार ज्ञान दोष है; उसके कारण तुम्हारी दृष्टि ठीक-ठीक निर्मल नहीं हो पाती। और दमन दोष है; उसके कारण तुम शरीर में छिपी हुई ऊर्जा को आत्मा का वाहन नहीं बना पाते। नहीं तो शरीर की ऊर्जा अश्व की भांति है। तुम उस पर सवार हो जाओ, उसके मालिक हो जाओ। और तुम जान लोगे अपने भीतर छिपे हुए उस परम आलोक को, जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत; जो शाश्वत है। उसे जिसने जाना, सब जाना। उसे जिसने जीता, उसने सब जीता।
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