आत्मशरण

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सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हार कर लौट जाती है। बहुत रूपों में। वे सब रूपों की कथाएं हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है। इसलिए अगर वो कहते है, सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज,  इसका अर्थ ही यही है कि विशेषणवाची जो भी धर्म हों उसे छोड़ कर। अनेक को छोड़ कर, तू मुझ एक की शरण में आ। कृष्ण यह भी कह सकते थे कि तू मेरी शरण में आ। लेकिन जो शब्द है, वह बहुत अदभुत है; वह है, मामेकं शरणं व्रज। मुझ एक की शरण में! माम्‌ एकम्‌। यहां कृष्ण व्यक्ति की हैसियत से बोल ही नहीं रहे हैं, यहां तो धर्म की हैसियत से ही बोल रहे हैं। यहां तो वे धर्म ही हैं। सब धर्मों को छोड़ कर धर्म की शरण में आ। अनेक को छोड़ कर एक की शरण में आ। एक धर्म की शरण में आ, अगर इसे बहुत गहरे में हम समझें, तो यह बहुत मजेदार बात है। मैं की शरण में आ। लेकिन जब मैं बोलता हूं, मैं, तो मेरा मैं होता है। वह आपके लिए तू हो जाएगा, मैं नहीं रह जाएगा। आपके लिए मैं तो आपका ही मैं होगा, मेरा मैं नहीं हो सकता। अगर कृष्ण का यह अर्थ हो कि तू कृष्ण की शरण में आ, तो यह तो तू की शरण हो जाएगी, यह मैं की शरण न होगी। लेकिन कृष्ण का अगर यही अर्थ हो कि तू मेरी शरण में आ, तो अर्जुन का मैं कृष्ण नहीं है। अर्जुन का मैं अर्जुन का मैं है। वह उसकी शरण में जाएगा। वह पूरा स्वधर्म की शरण में चला जाएगा। वह वक्तव्य बहुत अदभुत है और गहरा है। और इसकी गहराइयों का कोई हिसाब नहीं है। मनुष्यों ने जितने भी वक्तव्य दिए हैं इस पृथ्वी पर, शायद ही कोई वक्तव्य इसकी गहराई को छूता हो। अनेक को छोड़ कर एक की, तू को छोड़ कर मैं की, विशेषणवाची धर्मों को छोड़ कर एक धर्म की शरण में आ। लेकिन इसमें और गहराइयां हैं। अगर अर्जुन कहे कि मैं अपने ही मैं की शरण में जाऊंगा तब भी वह कृष्ण को नहीं समझा। क्योंकि शरण में जाने वाले को मैं छोड़ देना पड़ता है। शरण का अर्थ ही है कि मैं छूट जाए। समर्पण का अर्थ ही है कि मैं न बचे। शरण का अर्थ ही है कि मैं को छोड़ कर आ। अपनी ही शरण में आ, अपने को छोड़ कर। धर्म की शरण में आ, धर्मों को छोड़ कर। एक की शरण में आ, अनेक को छोड़ कर। लेकिन जिसके पास एक भी बच रहेगा, उसके पास अनेक भी बच रहेगा। एक की हम कल्पना ही नहीं कर सकते अनेक के बिना। इसलिए जिसे एक की शरण में आना है, उसे एक को भी छोड़ देना पड़ेगा। संख्या ही छोड़ देनी पड़ेगी। इसलिए अगर मैं जान रहा हूं कि मैं हूं तो तू के बिना नहीं जान सकता हूं। नहीं तो मैं कहां शुरू होऊंगा और कहां खत्म होऊंगा। तो जो भी जान रहा है मैं हूं, वह तू के विरोध में ही जान सकता है। तू रहेगा ही तो ही मैं हो सकता हूं। अगर कोई कह रहा है, एक ही है सत्य, तो भी अभी उसका जोर बता रहा है कि उसे दूसरा दिखाई पड़ रहा है, जिसको वह इनकार कर रहा है। स्मरण रखें कि यह कृष्ण की शरण के लिए नहीं कहा गया है। यह अर्जुन को आत्मशरण होने के लिए कहा गया है। और यह अर्जुन के अहंकार की शरण के लिए नहीं कहा गया है। यह निरअहंकार स्वभाव की शरण के लिए कहा गया है। यह धर्मों के त्याग के लिए कहा गया है और धर्मों के त्याग में कोई विशेष धर्म नहीं बचता है। सभी धर्मों के त्याग के लिए कहा गया है--सर्वधर्मान्‌। ऐसा नहीं कि हिंदू को बचा लेना, और बाकी को छोड़ देना। सबको छोड़ देना! क्योंकि जब तक कोई किसी धर्म को पकड़े है, तब तक धर्म को उपलब्ध न हो सकेगा। जब तक कोई किसी धर्म को पकड़े हुए है तब तक उस निर्विशेष धर्म को कैसे उपलब्ध होगा जो किसी विशेषण में नहीं बंधता है। धर्म को छोड़ देना, धर्मों को छोड़ देना, विशेषण को छोड़ देना, कृष्ण को छोड़ देना, संख्या को छोड़ देना, मैं को छोड़ देना, अहंकार को छोड़ देना, फिर जो शेष रह जाए, वही धर्म है। और वही आत्मशरण है।

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