अनुद्विग्न संवेदनशीलता

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स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में अनुद्विग्न रहेगा और दुख में भी अनुद्विग्न रहेगा, तो ऐसी मुसीबत खड़ी होने की शक्यता नहीं है कि सुख-दुख दोनों में उसकी संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी ब्लंट हो जाए? अगर सुख को सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, तो उसकी संवेदना को ह्यूमन कैसे कहेंगे हम? कृष्ण का यह कहना कि सुख और दुख में अनुद्विग्न रहे, वही स्थितप्रज्ञ है। यदि सुख में कोई सुखी न हो और दुख में कोई दुखी न हो, तो क्या उसकी संवेदनशीलता, उसकी सेंसिटिविटी मर नहीं जाएगी? साधारणतः कृष्ण को न समझने वाले लोगों ने ऐसा ही समझा है। और ऐसा ही करने की कोशिश की है। जिसको हम संन्यासी कहते हैं, त्यागी कहते हैं, विरक्त कहते हैं, वह यही करता रहा है, वह संवेदनशीलता को मारता रहा है। संवेदनशीलता मर जाए, तो स्वभावतः सुख-दुख का पता नहीं चलता। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सुख-दुख में अनुद्विग्न। वे यह नहीं कहते हैं कि सुख-दुख में असंवेदनशील। वे कहते हैं, सुख-दुख में अनुद्विग्न। सुख-दुख के पार, उनके विगत, उनके आगे, उनके ऊपर। साफ है यह बात कि सुख-दुख मिट जाएं, ऐसा वे नहीं कहते। अगर सुख-दुख मिट जाएं, तो उनके पार कैसे होइएगा? सुख-दुख अगर पता ही न चलें, तो सुख-दुख में अनुद्विग्नता का क्या अर्थ होगा? कोई अर्थ नहीं होगा। मरा हुआ आदमी सुख-दुख के बाहर होता है, अनुद्विग्न नहीं होता।अगर कोई व्यक्ति सुख को पूरा अनुभव करे--पूरा--इतना पूरा अनुभव करे कि बाहर रह ही न जाए, सुख में पूरा हो जाए, सुख के प्रति पूरा संवेदनशील हो, तो अनुद्विग्न हो जाएगा; क्योंकि उद्विग्न होने को बाहर कोई बचेगा नहीं। अगर कोई व्यक्ति दुख में पूरा डूब जाए, टोटल दुख में डूब जाए, तो दुख के बाहर दुखी होने को कौन बचेगा? कृष्ण जो कह रहे हैं वह संवेदनशीलता का अंत नहीं है, संवेदनशीलता की पूर्णता की बात है। अगर हम पूरे संवेदनशील हो जाएं...समझें कि मुझ पर दुख आया। यह मुझे पता चलता है कि दुख आया, क्योंकि दुख से अलग खड़ा होकर मैं सोचता हूं। मैं ऐसा कहता हूं कि मुझ पर दुख आया, मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि मैं दुखी हो गया हूं। और जब हम यह भी कहते हैं कि मैं दुखी हो गया हूं, तब भी फासला बनाए रखते हैं। हम ऐसा नहीं कहते कि मैं दुख हूं। हम जिंदगी में सब चीजों को तोड़ कर रख देते हैं, जब कि वे सत्य नहीं हैं। जब मैं किसी से कहता हूं कि मुझे तुमसे प्रेम है, तब भाषागत ठीक बात कही जाने पर भी अस्तित्वगत रूप से गलत है। जब मुझे किसी से प्रेम होता है तो ऐसा नहीं होता है कि मुझे किसी से प्रेम है, बल्कि ऐसा होता है कि मैं किसी के प्रति प्रेम हूं। मैं पूरा ही प्रेम होता हूं। मेरे पार कुछ बच ही नहीं रहता जो कि प्रेम न हो। और अगर मेरे पार इतना भी कोई बच रहता है जो कहने को भी हो कि मुझे उससे प्रेम हो गया है, तो मैं पूरा प्रेम में नहीं चला गया हूं। और जो पूरा प्रेम में नहीं चला गया है, वह प्रेम में गया ही नहीं है, वह जा ही नहीं सकता। जब हम पर सुख आते हैं, दुख आते हैं, तब हम पूरे उनमें नहीं हो जाते हैं। अगर हम पूरे हो जाएं और उसके बाहर हमारे भीतर कुछ भी न बचे, तो कौन कहेगा? कौन उद्विग्न होगा? कौन पीड़ित होगा? मैं दुख ही हो जाऊं। तो संवेदनशीलता तो पूर्ण होगी, अपनी पूरी त्वरा में, अपनी पूरी चरमता में होगी। क्योंकि मेरी पुलक-पुलक दुख से भर जाएगी, मेरा रोआं-रोआं दुख से भर जाएगा; मेरी आंख, मेरी श्र्वास, मेरा अस्तित्व दुख हो जाएगा। लेकिन तब उद्विग्न होने को कोई नहीं बचेगा। मैं दुख ही हूं, उद्विग्न कौन होगा? ऐसे ही जब सुख आए तो मैं पूरा सुख हो जाऊं, तो उद्विग्न कौन होगा? मैं सुख ही हो जाऊंगा। और अगर सुख और दुख में मैं इस तरह पूरा होता चला जाऊं, तो कभी भी सुख और दुख की कंपेरीजन, तुलना करने का मौका कैसे आएगा? कौन तौलेगा? कि जब मैं दुखी था तो बहुत बुरा था, अब जब मैं सुखी हूं तो बहुत अच्छा हूं। और अब आगे भी सुख ही होना चाहिए, दुख नहीं होना चाहिए। प्रतिपल हमारे पूरे अस्तित्व को घेर ले, तो संवेदनशीलता समग्र होती है, पूर्ण होती है, लेकिन उद्विग्नता खो जाती है। 

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