मनुष्यत्व

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ईसप हुआ, एक बोध-कथाकार, उसने जैसी बोध-कथाएं लिखीं, दुनिया में किसी ने नहीं लिखीं। वह आदमी बड़ी प्रज्ञा का था। एक किनारे बैठा था रास्ते के एक दिन। एक आदमी निकला और उसने पूछा कि भाई मेरे, बता सकोगे कि गांव कितनी दूर है और मैं कितनी देर में पहुंच जाऊंगा? ईसप कुछ भी न बोला; सिर्फ उठ कर उस आदमी के साथ चलने लगा। वह आदमी थोड़ा डरा भी। उसने कहा कि मैंने पूछा है कि गांव कितनी दूर है, मैं कितनी देर में पहुंच जाऊंगा? तुम कुछ उत्तर दो, तुम्हें चलने की कोई जरूरत नहीं है मेरे साथ। लेकिन ईसप चुपचाप उसके साथ चलता रहा। कोई पंद्रह मिनट बाद ईसप ने कहा, दो घंटे लगेंगे। उस आदमी ने कहा, हद्द पागल आदमी हो। यह बात तुम वहीं कह सकते थे। मेरे साथ मील भर आने की जरूरत न थी। ईसप ने कहा, जब तक तुम्हारी चाल न देख लूं तब तक कैसे बताऊं कितनी देर लगेगी। रास्ते की लंबाई से थोड़े ही तय होता है; आदमी की चाल! अब मैं निश्चिंत भाव से कहता हूं, दो घंटे लगेंगे। तुम्हारी चाल पर निर्भर करेगा। तुम दौड़ भी सकते हो--तुम जल्दी पहुंच जाओगे। तुम बाराती की चाल से भी चल सकते हो--तब तुम कब पहुंचोगे, कुछ कहना मुश्किल है। तुम्हारी तेजी इतनी भी हो सकती है कि एक क्षण में तुम छलांग लगा जाओ। और तुम इतने मंदे-मंदे भी, कुनकुने-कुनकुने भी उबल सकते हो कि अनंत जन्म लग जाएं और तुम न पहुंचो।अगर तुम पूरी त्वरा से, समग्र भाव से, पूरे प्राणों से, कुछ भी न बचाओ भीतर और सभी दांव पर लगा दो, तो अभी पहुंच जाओगे--इसी क्षण! क्योंकि यह यात्रा कोई बाहर की यात्रा नहीं है। यह यात्रा तो भीतर की है, जहां तुम हो ही, सिर्फ नजर फेरने की बात है। फासला जरा भी नहीं है। मगर अगर नजर ही फेरने में तुम देर लगाओ, स्थगन करो, कहो कि कल करेंगे, परसों करेंगे, तो फिर ऐसे अनंत जन्म जा चुके हैं, अनंत और जा सकते हैं। और ध्यान रहे, प्रकृति को तुम्हारी धार्मिक उपलब्धि में कोई उत्सुकता नहीं है। मनुष्य जहां तक आ गया है, वहां तक प्रकृति ले आती है; इसके पार तुम्हें जाना हो, तो तुम्हारा ही श्रम ले जाएगा। प्रकृति तुम्हें पशु बनाती है, उससे आगे नहीं। उतना काम प्रकृति कर देती है। मनुष्यत्व तो अर्जित करना होता है।

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