धार्मिक स्रोत

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अरी, मैं तो नाम के रंग छकी।।

जिन्होंने जाना है, उन्होंने ऐसा कहा है। जिन्होंने नहीं जाना, वे तो धर्म के नाम पर बड़े उदास हो जाते हैं। जीते-जी मुर्दा हो जाते हैं। इन्हीं मुर्दों से इस देश के आश्रम भरे पड़े हैं। इन्हीं मुर्दों के कारण यह पूरा देश भी मुर्दा हो गया है। इन मुर्दों ने इस देश को जीना नहीं सिखाया, आत्महत्या सिखाई है। इस देश के पास सब है, सिर्फ इस देश की आत्मा खो गई है। कभी इस देश ने बड़ी ऊंचाइयां देखीं, बड़े शिखर देखे, कृष्ण की बांसुरी सुनी...अब तुम सोचते हो कृष्ण कुछ उदास ढंग के आदमी रहे होंगे? उदासी और बांसुरी का कुछ मेल बैठेगा? कृष्ण का नृत्य देखा है इस देश ने। कृष्ण का रास देखा। उदास आदमी नाचते हैं? मोरमुकुट बांधते हैं? वे स्वस्थ दिन थे। धर्म अपनी गहनता में, अपनी गहराई में प्रकट हुआ था।फिर बड़े रुग्ण दिन आए। रुग्ण-चित्त लोग हावी हो गए। उन्होंने सारे देश के मन को उदासी से भर दिया; विस्तार चला गया, लोग सिकुड़ने लगे। हर चीज से भयभीत हो गए। ऐसा न करें, वैसा न करें। धर्म न करने की ही एक प्रक्रिया हो गई: क्या-क्या न करें। धर्म का करने से कोई संबंध न रहा। फैलाव का विज्ञान न रहा धर्म, सिकुड़ाव बन गया। सिकुड़े-सिकुड़े आदमी जीने लगे। और तभी न केवल देश की आत्मा मरी, देश का शरीर भी दीन-हीन हो गया। हजारों साल से यह देश गरीब है और इस गरीबी के पीछे तुम्हारे तथाकथित झूठे धर्म की ही शिलाएं हैं। जो भीतर से समृद्ध होता है, उसे बाहर से दरिद्र होने का कोई भी कारण नहीं है। क्योंकि जो भीतर से समृद्ध होता है, उसकी समृद्धि बाहर भी फैलने लगती है। फैलनी ही चाहिए। वही सबूत है। जब भीतर गीत उठा हो, तो बांसुरी बजेगी, और स्वर बाहर फैल जाएंगे। इस देश को कभी सोने की चिड़िया होने का सौभाग्य था। वे दिन थे, जब इस देश ने धर्म जाना था। तब वेद सहज जन्मे थे। तब उपनिषद ऐसे पैदा हुए थे जैसे गीत कोई गाता है, या पक्षी सुबह गुनगुनाते हैं। इतनी सरलता से सब हुआ था। लेकिन वे सिकुड़ाव के दिन नहीं थे; बड़े फैलाव के दिन थे। धर्म का जो  नया रूप हे, उससे पंडित, पुरोहित, पुजारी, राजनेता बड़े परेशान हैं। उनकी परेशानी यह है कि वे धर्म के एक मुर्दा रूप के आदी हो गए हैं। वे यह भूल ही गए हैं कि धर्म में भी श्वास होनी चाहिए, हृदय धड़कना चाहिए। उनका धर्म का जो अर्थ हो गया है, वह लाश, मरघट, कब्र। इसलिए मानने को राजी नहीं है -क्योंकि यह न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न यहूदी है; यह कैसे धार्मिक हो सकती है जगह? मैं पूछना चाहता हूं कि जब बुद्ध ने धर्म को जन्म दिया, जब बुद्ध जिंदा थे, और बुद्ध चलते थे, उठते थे और बोलते थे, और जीवंत बुद्ध इस पृथ्वी पर था, तब तुम बुद्ध को धार्मिक मानते या नहीं? क्योंकि तब तक बुद्ध-धर्म पैदा नहीं हुआ था। बुद्ध हिंदू तो नहीं थे। हिंदू धर्म को तो छोड़ चुके थे, उस मुर्दा घेरे से तो बाहर निकल गए थे। और अभी बुद्ध-धर्म का जन्म नहीं हुआ था। वह तो अच्छा हुआ कि कोई नेताजी न हुए! नहीं तो बुद्ध को धार्मिक नहीं मान सकते थे, क्योंकि वह पूछते कि तुम कौन हो? हिंदू हो? जैन हो? ये दो धर्म थे उस वक्त। तुम दोनों नहीं हो। तो फिर तुम धार्मिक कैसे? लेकिन फिर बुद्ध के मरने के बाद बुद्ध-धर्म बना। और अब हम बुद्ध-धर्म को बुद्ध-धर्म मानते हैं। जब जीसस थे, तो जीसस थे लेकिन ईसाइयत कहां थी? यहूदी तो वे नहीं थे। नहीं तो यहूदी उनको सूली न देते। उस मुर्दापन को तो उन्होंने छोड़ दिया था। और अभी ईसाइयत तो भविष्य के गर्भ में छिपी थी। तो ईसा को तुम धार्मिक मानोगे या नहीं? यह तो बड़े मजे की बात हो जाएगी कि ईसा तो धार्मिक नहीं हैं, ईसाइयत धार्मिक है; बुद्ध धार्मिक नहीं हैं, बुद्ध-धर्म धार्मिक है। यह तो बड़े मजे की बात हो जाएगी। कि कृष्ण तो धार्मिक नहीं हैं, कृष्णमार्गी धार्मिक हैं; मोहम्मद तो धार्मिक नहीं हैं, मुसलमान धार्मिक हैं। यह तो बड़े मजे की बात हो जाएगी कि गंगोत्री पर गंगा गंगा नहीं है और जब सब नगरों और गांवों की गंदगी और कूड़ा-करकट और सब मल-मूत्र उसमें मिल जाएगा, तो प्रयाग में आकर गंगा हो जाएगी। गंगोत्री पर गंगा नहीं है। यह तर्क। यहां जो हो रहा है, न हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न बौद्ध है, न सिक्ख है। लेकिन जो भी नानक का प्राणों का स्वर था, जो बुद्ध के हृदय की आवाज थी, जो कृष्ण का गहनतम अनुभव था और जो जीसस की आकांक्षा थी और जो मोहम्मद की अभीप्सा थी, उस सबका प्रतिफलन है। वह सारी सुवास संयुक्त है। धर्म मरता है तभी संप्रदाय बनता है। बुद्ध जब तक हैं तभी तक धर्म है। लेकिन तब तक सरकारें मानने को राजी नहीं होतीं। मूढ़ताएं तो बहुत होती हैं, लेकिन सरकारी मूढ़ता का कोई मुकाबला नहीं। सरकारी मूढ़ता तो ऐसी है जैसे करेला नीम चढ़ा। ऐसे ही करेला, फिर नीम पे चढ़ गया। और यही बात है जिसकी जगजीवन बात कर रहे हैं: अरी, मैं तो नाम के रंग छकी! और छक सकते हो तभी जब इस जिंदगी में कोई और चीज तुम्हें छका न सकेगी। तुम्हारा पात्र खाली का खाली रहेगा। कितना ही धन डालो इसमें, खो जाएगा। कितना ही पद डालो इसमें, खो जाएगा। पात्र खाली का खाली रहेगा। तुम भरोगे नहीं। भरता तो आदमी केवल परमात्मा से है। क्योंकि अनंत है हमारा पात्र और अनंत है परमात्मा--अनंत को अनंत ही भर सकेगा। हमारे भीतर शून्य का पात्र है। इस शून्य के पात्र को परमात्मा की पूर्णता के अतिरिक्त और कोई चीज नहीं भर सकती। और यही पूर्णता कृष्ण है, क्राइस्ट है, महावीर है, बुद्ध है, मोहमद है और यही सच्ची धार्मिकता है।

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