क्रोध

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क्रोध का अर्थ है : उत्तरदायित्व दूसरे का है, दूसरा जिम्मेवार है। तुम लाख कोशिश करो क्रोध से बचने की, तुम न बच पाओगे, अगर तुम्हारी दृष्टि दूसरे को जिम्मेवार ठहराने की है। जिस दिन तुम समझोगे कि जिम्मेवार मैं हूं, उस दिन क्रोध को उठने का मूल कारण खो जायेगा। तुमने जड़ काट दी।अभी तुम्हारे जीवन का ढंग यह है कि दूसरा हमेशा जिम्मेवार मालूम होता है। अगर तुम दुखी हो तो कोई तुम्हें दुखी कर रहा है। अगर तुम परेशान हो तो कोई तुम्हें परेशान कर रहा है। तुम यह मान ही नहीं सकते कि परेशानी तुम्हारे भीतर से आ सकती है, दुख तुम्हारे भीतर से आ सकता है। तुम्हारा अंधापन जिम्मेवार होगा टकराहट में, यह तुम्हारा मन मानने को राजी नहीं होता। और तब तुम टूट पड़ते हो। जब दूसरा जिम्मेवार है तो दूसरे का अपराध सिद्ध करने की तुम कोशिश करते हो। जब तक तुम ऐसा करते रहोगे, तब तक तुम्हारी क्रोध की आग को ईंधन मिलता ही रहेगा। तब तुम घी डाल रहे हो आग में और सोचते हो कि आग शांत हो जाये।मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्त्रियां क्रोध को उतना नहीं दबातीं, जितना पुरुष दबाते हैं। क्योंकि पुरुष का अहंकार स्त्रियों से ज्यादा प्रबल है। भीतर क्रोध जल रहा हो तो भी पुरुष मुस्कुराता है। भीतर से हत्या कर देने का मन हो रहा हो तो भी शिष्टाचार बरतता है। न क्रोधित हो सकता है दूसरे पर, और न खुद पर हो सकता है। न रो सकता है, न चीख सकता है, न चिल्ला सकता है क्योंकि ये सब मर्द के लक्षण नहीं। ऐसा बचपन से बच्चों को समझाया गया है कि रोना मत, क्रोध मत करना। पुरुष का लक्षण है, संयमी, नियंत्रित। और अगर कोई पुरुष रोने लगे तो वह स्त्री है, स्त्रैण है। क्रोधित हो जाये छोटी-छोटी बात में तो बचकाना है, प्रौढ़ नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे तक यह समझ जाते हैं लेकिन पुरुष दबाता है; उसे दबाना सिखाया जाता है। दबाते-दबाते चालीस साल के करीब वह वक्त आ जाता है, इसके बाद झेलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए हृदय दुर्बल हो जाता है, क्योंकि सब दमन हृदय को दुर्बल करता है। पुरुष मरते हैं हृदय रोग से, स्त्रियां नहीं मरतीं। रो-धो लेती हैं, हल्की हो लेती हैं। रोज निपटारा हो जाता है, इकट्ठा नहीं हो पाता। क्रोध कर लेती हैं, नाराज हो जाती हैं, दूसरे को न मार सकें तो खुद को पीट लेती हैं।यह जानकर हैरान होंगे कि पुरुष स्त्रियों से दुगुने पागल होते हैं। और आमतौर से आप सोचते होंगे स्त्रियां ज्यादा आत्महत्या करती हैं तो आप गलती में हैं। न तो स्त्रियां ज्यादा पागल होती हैं और न ज्यादा आत्महत्या करती हैं; पुरुष ही करते हैं। अपराध भी स्त्रियां कम करती हैं, पुरुष ही करते हैं। जैसे सारे उपद्रव पुरुष करता है! और मनस्विद कहता है कि इसके मूल में कारण है कि पुरुष सारी मवाद को इकट्ठा करता चला जाता है। फिर वह इतनी इकट्ठी हो जाती है, कि जब फूटकर बहती है तो उससे दुर्घटना ही होती है। पुरुष नाराज है, उसने कार निकाली, और एक्सीलरेटर पर उसका पैर तेजी से जायेगा। वह सोचेगा भी नहीं कि यह साठ-सत्तर की जो रफ्तार आ रही है, यह क्रोध का वमन हो सकता है। लेकिन इससे दुर्घटना हो सकती है। पचास प्रतिशत कार दुर्घटनाएं क्रोध के कारण होती हैं। वह वमन का रास्ता बन जाता है। स्पीड जितनी बढ़ती जाती है गाड़ी की, उतना क्रोध वमित होता जाता है। लेकिन यह खतरनाक है। यह खेल खतरनाक है, इससे पूरा जीवन खतरे में पड़ सकता है--खुद का भी, दूसरे का भी। मनुष्य का स्वयं से बड़ा दुश्मन खोजना कठिन है। न दमन काम करेगा, न वमन काम करेगा; ठीक काम तो तब शुरू होगा, जब तुम पहले ही बिंदु पर रुक जाओगे, यात्रा शुरू ही न होगी। वहीं रोका जा सकता है। और वहां रुक जाओ तो तुम्हारी ऊर्जा स्वस्थ होगी, प्रवाहित होगी। क्रोध तुम्हारे शरीर में जहर को न फैला पाएगा, करुणा का अमृत तुम्हारे शरीर में बहेगा। कौन-सा मूल बिंदु है? मूल बिंदु वहां है, जहां हमने दूसरे को जिम्मेवार ठहराया।

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