निजता

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जब भी कोई व्यक्ति भीड़ से भिन्न होने लगे तो भीड़ नाराज हो जाती है, क्योंकि तुम्हारी भिन्नता भीड़ के जीवन पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती है। अगर तुम सही हो तो वे गलत हैं। अगर वे सही हैं तो तुम्हें गलत होना ही चाहिए। भीड़ बरदाश्त नहीं करती उस व्यक्ति को जो अपनी निजता की घोषणा करे। भीड़ तो भेड़ों को चाहती है, सिंहों को नहीं। और संन्यास तो सिंह-गर्जना है, सिंहनाद है। संन्यास का तो अर्थ ही यह है कि अब मैंने छोड़ दिए रास्ते पिटे-पिटाए; लकीर का फकीर अब मैं नहीं हूं। अब चलूंगा अपनी मौज से, अपनी मर्जी से! अब खोजूंगा परमात्मा को अपने ढंग से, अपनी शैली से। सम्हालो तुम अपनी परंपराएं, मेरी अब कोई परंपरा नहीं। मैं अपनी पगडंडी खुद चलूंगा और बनाऊंगा। संन्यास का अर्थ है कि मैं सत्य की खोज में व्यक्ति की तरह चल पड़ा; किसी भीड़ का अंग नहीं। हिंदू नहीं अब मैं, मुसलमान नहीं अब मैं, ईसाई नहीं अब मैं, जैन नहीं अब मैं। अब सारे धर्म मेरे हैं और कोई धर्म मेरा नहीं। और तब सारे, जिनको तुम अपने समझते थे, तत्क्षण पराए हो जाएंगे। सबसे पहले वे ही पराए हो जाएंगे, क्योंकि सबसे पहले उन्हीं के साथ तुम्हारा संघर्ष शुरू हो गया। ऐसा नहीं कि तुम उनसे लड़ने चले हो, मगर तुम्हारी यह भाव-भंगिमा, तुम्हारी यह निजता की घोषणा, उनकी आंखों में अपराध हो जाएगी। क्योंकि बिरादरी की निंदा तो कोई सुन सकता नहीं। वैसे ही हमारे इस समाज में अगर अपनी निजता के लिए इन मूर्ख पंडित-पुरोहित, तुम्हारे प्रियजनों ने तुम्हें मारा-पीटा, उन्होंने तुम्हारा त्याग कर दिया है, तुम सौभाग्यशाली हो। इससे उन्होंने स्वीकृति दी है कि तुम्हारा संन्यास सच्चा है और देर सवेर यही संसार भी इसी सच्चाई को अपनाएगा।

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