परिपूरक
तमाम उम्र कटी एक बेनवा की तरह
चमन में खाक उड़ाते फिरे सबा की तरह
चिराग हसरते-पा-बोस का जलाए हुए
तुम्हारी राह में हम भी हैं नक्शे-पा की तरह
दिलों का दर्द कभी लब पे आ ही जाता है
किसी पुकार की सूरत किसी सदा की तरह
निशाने-राह न पाया तो दश्ते-गुरबत में
हम अपनी राह बनाते चले हवा की तरह
गमे-शिकस्त ने हर-हर कदम पे साथ दिया
किसी रफीक, किसी दर्द-आश्ना की तरह
इलाही गम की हवाएं किसी के दामन तक
पहुंच न पाएं मेरे दस्ते-नारसा की तरह
खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ‘ताबां’
मगर वुजूद न पाया कहीं हुमा की तरह
उर्दू कविता में हुमा पक्षी नाम के एक काल्पनिक पक्षी की चर्चा है। कहते हैं कि हुमा पक्षी की छाया भी किसी पर पड़ जाए तो उसके जीवन में सौभाग्य का उदय हो जाता है, अशर्फियां बरस जाती हैं। लेकिन हुमा पक्षी काल्पनिक है, उसकी छाया कहां से पड़ेगी? खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ‘ताबां’ नाम तो बहुत सुना खुशी का, आनंद का। मगर वुजूद न पाया कहीं हुमा की तरह उसका अस्तित्व कहीं न मिला। हुमा पक्षी की तरह बहुत खोजा, मगर उसे कहीं पाया नहीं। और ऐसे ही यह देश आनंद की बातें तो कर रहा है सदियों से, मगर पाया कहां? अरे, बाहर का भी न पा सके तो भीतर का क्या पाओगे? बाहर का तो भौतिकवादी भी पा लेते हैं, वह भी न पा सके, तो भीतर का आनंद तो बहुत बड़ी बात है। बाहर के आनंद के सोपान पर चढ़ कर ही तो भीतर का आनंद पाया जाता है। बाहर कुछ सीढ़ी बनाओ, ताकि भीतर पहुंच सको। बाहर और भीतर में विरोध नहीं है; वे परिपूरक हैं। जैसे दिन और रात में विरोध नहीं। जैसे जवानी में और बुढ़ापे में विरोध नहीं। जैसे जिंदगी में और मौत में विरोध नहीं। जैसे सर्दी में और गर्मी में विरोध नहीं। वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
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