आग्नेय

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तीन चीजों का खयाल करो। एक तो है विज्ञान, जो पदार्थ पर सीमित है। एक है धर्म जो पदार्थ के अतीत है, परमात्मा जिसकी तलाश है। और दोनों के बीच में हैं, कला, काव्य। एक पैर कला का पृथ्वी पर है और एक पैर परमात्मा में है। इसलिए कलाकार बहुत दुविधाग्रस्त होता है। न तो वैज्ञानिक इतनी दुविधा से भरा होता है--होने का कोई कारण नहीं। उसने मान ही लिया कि ईश्वर नहीं है। दूसरा है ही नहीं, बस पदार्थ है। इसलिए वैज्ञानिक में तुम एक तरह की सुसंगति पाओगे, तर्कबद्धता पाओगे। और संत में भी एक सुसंगति, एक तर्कबद्धता: क्योंकि ईश्वर ही है, शेष कुछ भी नहीं।

वैज्ञानिक कहता है: ईश्वर झूठ, संसार सच--जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या--और संत कहता है: ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। दोनों ने एक के साथ अपनी भांवर डाल ली है। दोनों के बीच में त्रिशंकु की भांति है कलाकार की स्थिति। चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, कवि। वे सभी कविता के रूप हैं। कोई ध्वनि से कविता पैदा करता है, तो उसको हम संगीतज्ञ कहते हैं। कोई मुद्राओं से कविता पैदा करता है, तो उसको हम नर्तक कहते हैं। कोई रंगों से कविता पैदा करता है, तो उसे हम चित्रकार कहते हैं। कोई पत्थरों में कविता खोदता है, तो उसे हम मूर्तिकार कहते हैं। वे सब काव्य के ही रूप हैं। माध्यम अलग होंगे। कवि इन दोनों के बीच में है। कवि कहता है: जगत भी सत्य, ब्रह्म भी सत्य। इसलिए कवि बड़े तनाव में जीता है। कभी इधर, कभी उधर। कभी निम्नतम पर उतर आता है, कभी श्रेष्ठतम पर उड़ानें लेने लगता है। कवि भी गाता है, ऋषि भी गाता है। मगर गान-गान में बहुत भेद है। कवि का गीत सांत्वना से ज्यादा नहीं। मधुर है, मीठा है, सुस्वादु है, क्षण भर को जीवन की चिंताओं से मुक्त करने में सहयोगी है, मादक है, शामक है। पर ऋषि का गीत कुछ और। ऋषि जगाता है, झकझोरता है। ऋषि का वक्तव्य क्रांति का वक्तव्य है। ऋषि का वक्तव्य आग्नेय है, तीर की तरह चुभता है। सांत्वना नहीं है ऋषि के वचनों में, सत्य की अग्नि है। कवि के वचन मूर्च्छा लाने में सहयोगी हो सकते हैं, ऋषि के वचन, जागरण, ध्यान, उस परम अनुभूति की तरफ ले चलते हैं, जहां प्रभु से साक्षात होता है। ऋषि द्रष्टा है, कवि केवल स्वप्न भोगी। पर कभी-कभी कवि के स्वप्नों में ऋषि के दर्शन की छाया पड़ती है। और कभी-कभी कवि जाने-अनजाने ऋषि की अमृत बूंदों को भी अपने शब्दों में बांध पाता है। कवि के लिए कभी-कभी झरोखा खुलता है, ऋषि की वही सम्यक दशा हो गई है। कवि में द्वंद्व है सदा, एक संघर्ष है। कवि अपने से लड़ रहा है। कवि बंटा है। बाहर कुछ, भीतर कुछ। तो ऐसा भी हो सकता है कि कवि की सुंदर गीतमालाओं को पढ़ कर, सुन कर, गुनगुना कर तुम कवि को देखने की आकांक्षा से भर सकते हो। मगर भूल कर भी ऐसी भूल न करना। क्योंकि कवि को तुम अतिसाधारण पाओगे। कवि जीता है पृथ्वी पर, ऋषि उड़ता है आकाश में। हां, कभी-कभी कवि भी आकाश की तरफ आंखें उठा कर देखता है और यह भी सही है कि कभी-कभी ऋषि भी आंखें झुका कर पृथ्वी की ओर देखता है, लेकिन उनके परिप्रेक्ष्य भिन्न हैं, उनके दर्शन के बिंदुकोण भिन्न हैं। कवि पृथ्वी का पुत्र है, मिट्टी का पुतला है। कवि जब आंखें उठाता है और तारों भरे आकाश को देखता है, तो क्षण भर को भूल जाता है अपने मर्त्यभाव को, मृत्यु को, देह को। ऋषि अमृत का पुत्र है। उसने जान लिया कि जीवन शाश्वत है। और जब वह पृथ्वी पर भी देखता है तो भी क्षण भर को यह बात भूलती नहीं। पृथ्वी पर भटकते, राह खोजते लोगों पर उसके हृदय में महाकरुणा उत्पन्न होती है, वह बरस पड़ना चाहता है, वह लोगों के मार्ग पर दीये बन जाना चाहता है, उनके हाथों में मशाल बन जाना चाहता है! 

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