निराकार

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एक छोटी-सी कहानी है। दो पुलिस के आदमी एक रास्ते से गुजर रहे हैं। एक होटल के सामने, एक आवारा आदमी ने एक आवारा कुत्ते की टांग पकड़ रखी है। और वह उसे पछाड़कर मार डालने को है क्योंकि कुत्ते ने उसे काट लिया है। वहां भीड़ लग गई है, लोग मजा ले रहे हैं। लोग कह रहे हैं, मार ही डालो। यह कुत्ता और लोगों को भी सता चुका है। एक पुलिस वाले ने कहा कि ठीक ही हुआ कि कुत्ता पकड़ा गया। यह पुलिस वालों को भी परेशान करता है। आवारा है। मार ही डालो। लेकिन तभी दूसरे पुलिस वाले ने उस के कान में कहा कि ठहरो! यह हमारे अधिकारी का, बड़े आफिसर का कुत्ता मालूम होता है। वह पुलिस वाला चिल्ला रहा था कि मार ही डालो, पछाड़ ही डालो...जैसे ही उसने सुना कि हमारे आफिसर का कुत्ता मालूम पड़ता है, झपटकर उसने उस आवारा आदमी की गर्दन पकड़ ली और कहा कि तू यह क्या कर रहा है? यह कुत्ते को मार रहा है? कुत्ते को उठाकर उसने गले से लगा लिया--आफिसर का कुत्ता है। चेहरा बदल गया! क्षण भर पहले वह कह रहा था, मार ही डालिए, पुलिस वालों को भी सताता है; लेकिन आफिसर का कुत्ता है तो बात बदल गई। अब कुत्ते को मारना नहीं है। उस आदमी को पकड़कर जेल ले जाना है। जैसे ही उसने कुत्ते को अपने कंधे पर लिया, चूमा, पुचकारा, उसके बगल वाले आदमी ने कहा कि नहीं, भूल हो गई। यह कुत्ता मालिक का नहीं है। तत्क्षण कुत्ता जमीन पर पटक दिया गया और उस आवारा आदमी को छोड़कर उसने कहा कि खत्म करो इस कुत्ते को, यह आवारा है। और यह और लोगों को भी काट चुका है और एक सार्वजनिक उपद्रव है। भीड़ भी चकित है, क्योंकि चेहरे इतने जल्दी बदलें तो मुश्किल हो जाती है। वह आवारा आदमी भी तय नहीं कर पा रहा है, लेकिन जब पुलिस वाला कह रहा है तो उसने फिर उसकी टांग पकड़ ली और वह पछाड़ने को तैयार ही है, तभी बगल वाले आदमी ने फिर कहा कि नहीं क्षमा करें, कुत्ता तो मालिक का ही मालूम पड़ता है। फिर बात बदल गई। और ऐसी कहानी चलती जाती है। वह कई दफे बदलती है। आवारा आदमी पकड़ लिया जाता है, पुनः कुत्ते को कंधे पर रख लिया जाता है, वह पुलिस थाने की तरफ चल पड़ता है। तब रास्ते में फिर एक आदमी कहता है, अरे! यह आवारा कुत्ते को कंधे पर रखे हो? लगता है तुम भी उसी भूल में पड़े हो, जिसमें मैं एक दिन पड़ गया था कि बड़े पुलिस आफिसर का कुत्ता है। यह उनका कुत्ता नहीं है; फिर हालत बदल जाती है।

तुम्हारा चेहरा, कोई असली चेहरा तो नहीं है, जो न बदले। वह तो जरूरत, सुविधा, आवश्यकता से बनता है, मिटता है। यह चेहरा तुम्हारी आत्मा तो नहीं हो सकती। यह तुम्हारा अंगोछा है, जिसमें तुम अपने को छिपाये हो।लेकिन जब कोई परम सुख को उपलब्ध हो जाता है, जब स्वर्ग किसी के हृदय में उतर आता है, तब उसके चेहरे खो जाते हैं। जिनको हम चेहरे जानते हैं, वे खो जाते हैं। एक अर्थ में वह ‘फेसलेस’ हो जाता है, चेहरे से शून्य; और एक अर्थ में उसका मूल चेहरा प्रगट हो जाता है। शून्य ही तो मूल चेहरा है। वहां कोई नाक-नक्शा नहीं है, वहां कोई रूप-आकृति नहीं है, वहां निराकार है।

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