अतीत की निर्जरा
आपे बीजि आपे ही खाहु।
साधारणतः हमारा मन कहता है कि दुख हमें दूसरे दे रहे हैं। साधारणतः हमारा मन कहता है, सफलता तो मैं पाता हूं, असफलता दूसरों की अड़चन की वजह से आती है। शुभ तो मेरे जीवन में मेरी उपलब्धि है और अशुभ दूसरों के द्वारा मेरे जीवन पर आरोपण है। यह बात बिलकुल ही गलत है। तुम्हारे जीवन में जो भी है, वह तुम्हारे ही कृत्यों की श्रृंखला है। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, फूल लगें, कांटे लगें, सभी का संपूर्ण दायित्व तुम्हारे ऊपर है। जिस दिन कोई व्यक्ति इसका अनुभव करता है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी, समग्र दायित्व मेरा है, उसी दिन से जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। जब तक तुम दूसरों पर टालते हो, तब तक क्रांति न होगी। क्योंकि अगर दूसरे दुख दे रहे हैं तो तुम क्या करोगे? जब तक सभी दूसरे न बदले जाएं तब तक दुख जारी रहेगा। और सभी दूसरे कब बदले जाएंगे? तो फिर दुख को झेलने के सिवा कोई उपाय नहीं है। इसलिए धर्म के अतिरिक्त दुख के रूपांतरण की कोई कीमिया नहीं है। जिस दिन तुम जानोगे, मैं अपने ही बोए हुए बीजों की फसल काटता हूं। और जो दुख मैं पा रहा हूं, वह मैंने ही दिया है, फैलाया है, वही अब लौट रहा है...।
निश्चित ही, बीज बोने में और फल आने में वक्त लगता है। वक्त लगने के कारण तुम भूल ही जाते हो कि तुमने ये बीज बोए थे, और अब ये फल आने शुरू हो गए। जब फल आते हैं तब तुम बीज बोए थे, यह खयाल विस्मरण हो गया है। उस विस्मरण के कारण तुम सदा सोचते हो, दूसरे कुछ कर रहे हैं। ध्यान रखना, यहां कोई दूसरा तुममें चिंतित नहीं है। दूसरे अपने लिए चिंतित हैं। दूसरे अपने कारण परेशान हैं। तुम अपने कारण परेशान हो। और हर आदमी अपने ही कृत्यों की खोल में रहता है। इस बात को जितना तुम ठीक से पहचान लो, उतनी ही गहरी क्रांति संभव हो जाएगी। क्योंकि जैसे ही यह समझ में आता है कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कुछ किया जा सकता है। दो काम: एक कि जो मैंने किया है पीछे, उसे मैं शांति से भोग लूं, उसके भोगने में और नयी अशांति खड़ी न करूं, तो अतीत की निर्जरा हो जाएगी। लेन-देन साफ हो जाएगा।
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