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जब तक परमात्मा का अनुभव नहीं है तब तक ध्यान संभव है, प्रार्थना नहीं। ध्यान विधि है, प्रार्थना परिणाम है। ध्यान से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। एक झूठ को सम्हालने के लिए दस झूठ बोलने पड़ते हैं। और एक झूठ को पकड़ रखने के लिए दस झूठों की बैसाखियां इकट्ठी करनी पड़ती हैं, टेकें इकट्ठी करनी पड़ती हैं। परमात्मा अनुभव नहीं तो प्रार्थना तो झूठ होगी। मुंह से दोहरा सकोगे। लेकिन मुंह से दोहराई गई प्रार्थना का क्या मूल्य है? प्राणों से कैसे उठेगी? अंतरात्मा में कैसे जगेगी? तुम्हारा रोआं-रोआं कैसे पुलकित होगा?  लेकिन जिनके पास देखने की दृष्टि है वे हर अनुभव में से कुछ निचोड़ निकाल लेते हैं। परमात्मा शराब है। हां, शराब जब पी लोगे तो तुम्हारे जीवन में जो अलमस्ती होगी, प्रार्थना उसी अलमस्ती का एक रंग है। नृत्य होगा, गीत होगा; वे सब उसी अलमस्ती से निकलेंगे। वे उसी अलमस्ती की धाराएं हैं। अलमस्ती की गंगोत्री से प्रार्थना की गंगा पैदा होती है। मीरा को हुई। लोग सोचते हैं, मीरा ने गा-गा कर परमात्मा को पा लिया। गलत सोचते हैं, बिलकुल गलत सोचते हैं! उन्हें जीवन का गणित आता ही नहीं। मीरा ने परमात्मा को पाया, इसलिए गाया। परमात्मा सहज ही अनुभव बनता है।परमात्मा है क्या? तुम्हारी निर-अहंकार भाव की दशा का नाम! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। परमात्मा कोई आकाश में स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान जगत का शासक नहीं। परमात्मा है तुम्हारी वह परम अनुभूति, जब अहंकार की जरा सी भी मात्रा शेष नहीं रह जाती, होमियोपैथिक मात्रा भी शेष नहीं रह जाती; जब अहंकार की लकीर भी शेष नहीं रह जाती; जब अहंकार कहीं भी मौजूद नहीं रह जाता। तुमने देखा, शुद्ध कांच हो तो उसकी छाया नहीं बनती। सारी दुनिया के पुराणों में ऐसी कहानियां हैं कि आकाश में देवता चलते हैं तो उनकी छाया नहीं बनती। वे कहानियां बड़ी प्रीतिकर हैं, अर्थपूर्ण हैं। नहीं कि कहीं कोई स्वर्ग है और कहीं कोई देवता चलते हैं; बल्कि पुराण तो कहानियों के माध्यम से सत्यों को कहते हैं।

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