द्वार

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मुझको फूलों से प्यार नहीं मैं कांटों का दीवाना हूं।
मैं जलने वाला दीप नहीं जलने वाला परवाना हूं।

सुख हो अधरों को प्यास नहीं,
दुख का मन को आभास नहीं।
आशाएं सब पूरी होंगी--
ऐसा मुझको विश्वास नहीं।
मैं जीवन को सुंदर बुनता, कर्मों का ताना-बाना हूं।

जो बंध न सके वह धारा हूं,
जो उठ न सके वह पारा हूं।
मानवता, प्रेम, शांति के हित--
मैं महाक्रांति का नारा हूं।
जिसको न रोक पाए पर्वत ऐसा राही मस्ताना हूं।

मिट जाऊं ऐसा बीज नहीं,
बिक जाऊं ऐसी चीज नहीं।
सबकी मनचाही जो कर दे--
वह तांबे की ताबीज नहीं।

मैं अपनी मस्ती में डूबा अनगाया एक तराना हूं।
संन्यास का अर्थ है: ऐसी घोषणा कि मैं अपना गीत गाऊंगा, मैं उधार गीत न गाऊंगा; कि मैं अपना जीवन जीऊंगा; कि मैं किसी का अनुकरण नहीं करूंगा; कि मैं चलूंगा पगडंडी पर, राजपथों पर नहीं। राजपथों पर भीड़ें चलती हैं। भीड़ें सदा भेड़ों की होती हैं। मैं अपना मार्ग बनाऊंगा। मैं परमात्मा को अपने ढंग से खोजूंगा। चाहे भटकूं, चाहे देर लगे, मगर खुद अपनी पगडंडी बना कर पहुंचूंगा। फिर मजा और है। जो परमात्मा की तरफ अपनी ही पगडंडी बना कर पहुंचता है उसके आनंद की सीमा नहीं है। और भीड़ न तो कभी पहुंचती न कभी पहुंच सकती है। सिंहों के लिए खुलता है द्वार, भेड़ों के लिए नहीं। भेड़चाल छोड़ो। क्या बवंडर! कौन बवंडर उठाएगा? क्या छीन लेगा, क्या मिट जाएगा? हंसते-हंसते दे देना। अगर संन्यास लेने की आकांक्षा उठी है तो किसी कीमत पर झुको मत।

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