यह भी बहुत मजे की बात है कि दूसरे का सुख अपना सुख बनाना बहुत मुश्किल है। दूसरे का दुख अपना दुख बनाना बहुत आसान है। इसलिए आप दूसरे के रोने में रो सकते हैं, लेकिन दूसरे के हंसने में हंसना मुश्किल हो जाता है। अगर किसी के मकान में आग लग गई है तो आप सहानुभूति बता पाते हैं, लेकिन किसी का मकान बड़ा हो गया है तो उसके आनंद में भाग नहीं ले पाते हैं। इसमें बुनियादी कारण तो यह है कि हम दुखी हैं ही, आलरेडी। कोई भी दुखी हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं आती, हम उसमें डूब पाते हैं। सुखी हम नहीं हैं। कोई सुखी हो तो हमारा कोई तालमेल नहीं बन पाता, कोई संबंध नहीं बन पाता।
इसे थोड़ा समझ लेंगे।
जीसस के लिए जीवन इतना व्यर्थ है, जैसा जीवन है वह इतना दुखपूर्ण है पर उनके दुख में भी सुख की ही छाया है इसलिए कि आपने एक चांटा मार दिया तो इससे दुख में कोई बढ़ती नहीं होती। कहना चाहिए कि जीसस पहले से ही इतने पिटे हुए हैं कि आपके एक चांटे से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दूसरा गाल भी सामने कर देते हैं कि आपको उनका गाल फेरने की तकलीफ भी न हो। जीसस इतने दुख से सुखी हैं कि उन्हें और दुखी नहीं किया जा सकता। इसलिए जीसस को लड़ने के लिए तो तैयार नहीं किया जा सकता। लड़ने के लिए तो केवल वे ही तैयार हो सकते हैं जो जीवन के आनंद के घोषक हैं। अगर जीवन के आनंद पर हमला हो तो वे लड़ेंगे। वे जीवन के आनंद के लिए अपने को दांव पर लगा देंगे। वे जीवन के आनंद को बचाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो सकते हैं। जीसस को तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिए। इसलिए महावीर को भी तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिए। बुद्ध को भी तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिए। सिर्फ कृष्ण को तैयार किया जा सकता है। या एक और आदमी है, मोहम्मद, उसे तैयार किया जा सकता है युद्ध के लिए। मोहम्मद किसी बहुत गहरे रास्ते से कृष्ण के थोड़े समीप आते हैं। पूरा आना तो मुश्किल है, थोड़े समीप आते हैं। जिनको ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ बचाने योग्य है, केवल वे ही लड़ने के लिए तैयार किए जा सकते हैं। जिनको ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ बचाने योग्य ही नहीं है, उनके लड़ने का क्या सवाल है!लेकिन कृष्ण युद्धखोर नहीं हैं, युद्धवादी नहीं हैं। हैं तो वे जीवनवादी, लेकिन अगर जीवन पर संकट हो, तो वे लड़ने को तैयार हैं। इसलिए कृष्ण ने पूरी कोशिश की है कि युद्ध न हो। इसके सब उपाय कर लिए गए हैं कि यह युद्ध न हो। इस युद्ध को टाला जा सके और जीवन बचाया जा सके, इसके लिए कृष्ण ने कुछ भी उठा नहीं रखा है। लेकिन जब ऐसा लगता है कि कोई उपाय ही नहीं है, और मृत्यु की शक्तियां लड़ेंगी ही, और अधर्म की शक्तियां झुकने के लिए तैयार नहीं हैं, समझौते के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब कृष्ण जीवन के पक्ष में और धर्म के पक्ष में लड़ने को खड़े हो जाते हैं। मेरे देखे, कृष्ण के लिए जीवन और धर्म दो चीजें नहीं हैं। वे लड़ने को तैयार हो जाते हैं।
अहिंसा जरूरी नहीं है कि धर्म हो। हिंसा भी जरूरी नहीं है कि धर्म हो। कहा जा सकता है कि तब तो सब युद्धखोर कह सकते हैं कि हमारा युद्ध धर्म है। कह सकते हैं। जिंदगी जटिल है। कोई उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन, धर्म क्या है, अगर इसका विचार स्पष्ट फैलता चला जाए, तो कठिन होता जाएगा उनका ऐसा दावा करना। कृष्ण की दृष्टि में धर्म क्या है, वह मैं कहूं। कृष्ण की दृष्टि में, जीवन को जो विकसित करे, जीवन को जो खिलाए, जीवन को जो नचाए, जीवन को जो आनंदित करे, वह धर्म है। जीवन के आनंद में जो बाधा बने, जीवन की प्रफुल्लता में जो रुकावट डाले, जीवन को जो तोड़े, मरोड़े, जीवन को जो खिलने न दे, फूलने न दे, फलने न दे, वह अधर्म है। जीवन में जो बाधाएं बन जाएं, वे अधर्म हैं; और जीवन में जो सीढ़ियां बन जाए, वह धर्म है। इसलिए धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं, जो अपना आविष्कार कर रहा है। हां, इस आविष्कार करने में महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट की समझ सहयोगी हो सकती है। क्योंकि जब हम दूसरे को समझते हैं, तब हम अपने को समझने के भी आधार रख रहे होते हैं। जब हम दूसरे को समझते हैं, तब समझना आसान पड़ता है बजाय अपने को समझने के। क्योंकि दूसरे से एक फासला है, एक दूरी है और समझ के लिए उपाय है। अपने को समझने के लिए बड़ी जटिलता है, क्योंकि फासला नहीं है समझने वाले में और जिसे समझना है उसमें। तो समझ के लिए दूसरा उपयोगी होता है। लेकिन उसे समझ लेने के बाद हमारी अपनी ही समझ बढ़नी चाहिए, हमारी अपने प्रति ही समझ बढ़नी चाहिए।
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