निष्कर्ष
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो
जैसा उठा वैसा गिरा जाकर बिछौने पर
तिफ्ल जैसा प्यार यह जीवन खिलौने पर
बिना समझे बिना बूझे खेलते जाना
एक जिद को जकड़ लेकर ठेलते जाना
गलत है, बेसूद है, कुछ रच के सो, कुछ गढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो
दिन भर इबारत पेड़-पत्ती और पानी की
बंद घर की, खुले-फैले खेतधानी की
हवा की बरसात की हर खुश्क की
तर की गुजरती दिन भर रही जो आप की पर की
उस इबारत के सुनहरे वर्क से मन मढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो
लिखा सूरज ने किरन की कलम लेकर जो
नाम लेकर जिसे पंछी ने पुकारा जो
हवा जो कुछ गा गई, बरसात जो बरसी
जो इबारत लहर बन कर नदी पर दरसी
उस इबारत की अगरचे सीढ़ियां हैं, चढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो
जिंदगी को एक व्यर्थ वर्तुल न बनाओ। लोग घूम रहे हैं कोल्हू के बैल की तरह--वहीं जागते, वहीं सोते; वही कल किया था, वही परसों भी किया था, वही आज भी करेंगे, वही कल भी, वही परसों भी--अगर कोई कल हुआ, अगर कोई परसों हुआ, तो वही-वही करते रहेंगे। वही क्रोध, वही लोभ, वही काम, वही मोह। जागोगे कब? बदलोगे कब? तुम आदमी हो, कोल्हू के बैल नहीं। यह किसने तुम्हारी आंखों पर पट्टियां चढ़ा दी हैं? यह किसने तुम्हें कोल्हू में जोत दिया है? यह कौन है जो तुम्हें हांके जा रहा है? बड़ा मजा है! यह तुम्हारी अपनी करतूत है। ये आंख पर पट्टियां तुमने खुद चढ़ा ली हैं। यह कंधे पर तुमने कोल्हू अपने हाथ से ले लिया है। यह वर्तुलाकार चक्कर तुमने जीवन का खुद निर्मित किया है। किसी दूसरे ने भी किया होता तो कम से कम एक आशा रहती कि कभी दूसरा उतार देगा, कभी दया आएगी उसे। मगर यह तुम्हारा ही उपद्रव है। इसलिए जब तक तुम जागो और चेतो न, तब तक कोई इस परतंत्रता को छीन नहीं सकता है। इस संसार को कोई तुम्हारे मिटा नहीं सकता। इस स्वप्न को कोई नष्ट नहीं कर सकता। यह तुम्हारा ही अपना निष्कर्ष बने।
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