सबल निर्बलता

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तप, संयम, साधन करने का
मुझको कम अभ्यास नहीं है,
पर इनकी सर्वत्र सफलता
पर मुझको विश्वास नहीं है,
धन्य पराजय मेरी जिसने
बचा लिया दंभी होने से,
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

जो न कहीं भी जीते, ऐसों
में भी मेरा नाम नहीं है,
मुझे उड़ा ले जाना नभ के
हर झोंके का काम नहीं है,
पर तुम अपनी मुस्कानों में
सौ तूफान लिए आते हो,
कहीं, किधर को भी ले जाओ, सहसा मेरा पर खुल जाता।
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।
वज्र बनाई छाती मैंने
चोट करे घन तो शरमाए,
भीतर-भीतर जान रहा हूं
जहां कुसुम लेकर तुम आए,
और दिया रख उसके ऊपर
टूक-टूक हो बिखर पड़ेगी,
प्रात पवन के छूने पर ज्यों फूल खिला भू पर झड़ जाता।
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की निर्बलता में। भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की असहाय अवस्था में, मनुष्य की दीनता में। मनुष्य एक छोटा सा अंश है इस विराट का। संघर्ष करके जीतना भी चाहो तो न जीत सकोगे। जिससे संघर्ष करना है, वह विराट है। जो संघर्ष करने चला है, बूंद से ज्यादा उसकी सामर्थ्य नहीं। हार सुनिश्चित है। जो जीतने चलेगा, हारेगा। भक्ति का शास्त्र इस सूत्र को गहराई से पकड़ लेता है--जो जीतने चलेगा, वह हारेगा। और इसे रूपांतरित कर देता है। भक्ति कहती है: हारने चलो और जीतोगे। क्योंकि देखा हमने--जो जीतने चला, हारा। तुम गणित को उलटा कर दो। जो हारा, सो जीता। जो झुका, वही बचा। जो मिटा, वही बचा।

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