शब्द

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संत इसीलिए बोलते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि तुम शब्दों ही शब्दों में समाप्त हो जाओ। शब्द बड़े क्षुद्र हैं। भाषा की बहुत गति नहीं है; असली गति मौन की है। शब्द तो यहीं पड़े रह जाएंगे; कंठ से उठे हैं और कान तक पहुंचते हैं। मौन दूर तक जाता है; अनंत तक जाता है। नहीं तो तुम्हें यह भी कैसे पता चलता कि सत्य नहीं कहा जा सकता है! कहने से इतना तो पता चला। कहने से इतनी तो याद आई कि कुछ और भी है। भाषा के बाहर, शास्त्र के पार कुछ और भी है। कुछ सौंदर्य ऐसा भी है, जो कभी कोई चित्रकार रंगों में उतार नहीं पाया। और कुछ अनुभव ऐसा भी है कि गूंगे के गुड़ जैसा है; अनुभव तो हो जाता है, स्वाद तो फैल जाता है प्राणों में, लेकिन उसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिलते। जानते हैं संत; निरंतर स्वयं ही कहते हैं कि सत्य नहीं कहा जा सकता; और बड़ी जोखिम भी लेते हैं। क्योंकि जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहने की कोशिश में खतरा है। गलत समझे जाने का खतरा है। कुछ का कुछ समझे जाने का खतरा है। अनर्थ की संभावना है--और अनर्थ हुआ है। लोगों ने शब्द पकड़ लिए हैं। शब्दों के पकड़ने के आधार पर ही तो तुम विभाजन किए बैठे हो। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है! ये फर्क क्या हैं? ये शब्दों को पकड़ने के फर्क हैं।  किसी ने मोहम्मद के शब्द पकड़े हैं, तो मुसलमान हो गया है। और किसी ने महावीर के शब्द पकड़े हैं, तो जैन हो गया है। मोहम्मद के और महावीर के मौन में जरा भी भेद नहीं है। भेद है, तो शब्दों में है। अगर मुसलमान मोहम्मद का मौन देख ले, जैन महावीर का मौन देख ले, फिर कहां विवाद है? मौन में कैसा विवाद? मौन तो सदा एक जैसा होता है। किसी हड्डी-मांस-मज्जा में उतरे, मौन तो सदा एक जैसा होता है। एक कागज पर कुछ लिखा; दूसरे कागज पर कुछ लिखा। लेकिन दो कोरे कागज तो बस, कोरे होते हैं।अगर मुसलमानों ने मोहम्मद के शब्द के पार झांका होता, तो मुसलमान होकर बैठ न जाते। फिर हिंदू से लड़ने जाने की कोई जरूरत न थी। गीता और कुरान में होंगे भेद; मोहम्मद और कृष्ण में नहीं हैं। गीता और कुरान में भेद होंगे ही, क्योंकि गीता एक भाषा बोलती है, कुरान दूसरी भाषा बोलता है। गीता एक तरह के लोगों से कही गई; कुरान दूसरे तरह के लोगों ने दूसरे तरह के लोगों से कहा। संस्कृति, सभ्यता, भूगोल, इतिहास--इन सबका प्रभाव पड़ता है शब्दों पर। अब कृष्ण अरबी तो बोल नहीं सकते थे--सो कैसे बोलते! संस्कृत ही बोल सकते थे। मोहम्मद संस्कृत तो बोल नहीं सकते थे; जो बोल सकते थे, वही बोले। जो बोल सकते थे, उसी भाषा से इशारे किए। फिर जिनसे बोल रहे थे, उनकी ही भाषा का उपयोग करना होगा; नहीं तो बोलने का अर्थ क्या है! मगर लोगों ने शब्द पकड़ लिए हैं। इसलिए संत खतरा भी मोल लेता है। यह जान कर कि सत्य तो कहा नहीं जा सकता, फिर भी खतरा लेता है। और खतरा बड़ा है--कि लोग शब्द को न पकड़ लें!

आंसुओं की विकल वाणी
कह गई बीती कहानी
अन्यथा हम मौन रहते।
कल्पना को सच सिखाते
भावना को भव दिखाते
छंद को निर्बंध करते
कुछ नहीं लिखते-लिखाते
पर हृदय का विधुर गायक
बन गया बरजोर नायक
धूम्र की लपटें न मानीं
अन्यथा हम मौन रहते।
संयमित करते स्वरों को
गुनगुनाते मधुकरों को
बेरहम बन कतर देते
गीत विहगों के परों को
क्या पता था शब्द निर्मल
कल करेंगे अर्थ का छल
सह न पाए वचनदानी
अन्यथा हम मौन सहते।

शब्द इतने छोटे हैं; शब्दों की छोटी सी सीमा में कैसे असीम समाए! इशारा किया जा सकता है--अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती।

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