जीवंत आंख

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जिस क्षण तुम्हें इस बात का स्मरण आता है कि तुम अकारण व्यर्थ हुए जा रहे हो, कि जीवन का यह महाअवसर ऐसे ही खोया जाता है, यहां बहुत कुछ हो सकता था, यहां सब-कुछ हो सकता था और कुछ भी नहीं हो रहा है; यहां परमात्मा हो सकता था, और तुम खाली हाथ आए और खाली हाथ ही चले जाओगे! यह कैसी नादानी! यह कैसा बचकानापन है! यह कैसी मूढ़ता है! इसे तोड़ो! ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’ सुनो दरिया के शब्द, ये शब्द तुम्हारे लिए नौकाएं बन सकते हैं। ये शब्द तुम्हें चौंकाएंगे, जगाएंगे, झकझोरेंगे; ये शब्द तुम्हें पार भी लगा सकते हैं। निर्वाण की याद भी आ जाए, उस किनारे का मन में थोड़ा स्वप्न भी जग जाए, तो यह किनारा फिर ज्यादा देर तुम्हें बांधे नहीं रख सकता। इस किनारे से तुम्हारी जंजीरें टूटनी शुरू हो जाएंगी।

जहां तक भी नजर जाती, धुआं ही हाथ आता है,
कहीं भी जल नहीं है, सिर्फ रेगिस्तान गाता है,
कहीं भी घुंघरू की गूंज का धोखा नहीं होता,
खड़ी हैं बांह फैलाए हुए मजबूत चट्टानें,
गुजरती आंधियां अपनी कमानें हाथ में ताने,
गजब का एक सन्नाटा, कहीं पत्ता नहीं हिलता,
किसी कमजोर तिनके का समर्थन तक नहीं मिलता,
कभी उन्माद हंसता है, कभी उम्मीद रोती है।
बराए नाम जीते हैं, बराए नाम मरते हैं,
उनींदी आंख से टूटे हुए सपने गुजरते हैं,
उजाले के हमारे बीच का पर्दा नहीं उठता,
सुबह आए न आए रात से पीछा नहीं छुटता,
उदासी साथ चलती है, उदासी साथ सोती है।
बनाने के लिए हमने स्वयं किस्मत बनाई है,
विफलता एक पूंजी है, निराशा ही कमाई है,
जलन से दोस्ती है, उलझनों से आशनाई है,
लड़ाई है अगर अस्तित्व से, अपनी लड़ाई है,
स्वयं पतवार कश्ती को किनारे पर डुबोती है।
खुशी अक्सर सिमाने में हमें आवाज देती है,
रुकावट दायरा बन कर हमेशा घेर लेती है,
कभी मेला लगा रहता पुकारों का, खयालों का,
कभी उत्तर नहीं मिलता बड़े भोले सवालों का,
हमारा हाथ खाली, आंख में ही एक मोती है।
हमें जागा हुआ पाकर हमेशा रात हंसती है,
शरद की चांदनी में आग अंबर से बरसती है,
जिसे भी देख दें हम वह सितारा टूट जाता है,
अगर धारा पकड़ते हैं किनारा छूट जाता है,
कली हंस कर हमारी आंख में कांटे चुभोती है।
कभी श्मशान की धमकी, कभी तूफान की गाली,
हमारी उम्र का प्याला कभी गम से नहीं खाली,
मरुस्थल पर सुबह से शाम तक बादल बरसते हैं,
समंदर में बसे हैं, हम मगर जल को तरसते हैं,
हमारे ओंठ आकर मृत्यु चुंबन से भिगोती है!
भंवर में डूब जाते हैं अगर तो तर गए हैं हम,
जिलाने के लिए तस्वीर को खुद मर गए हैं हम,
किसी बारात में शामिल हमारा दिल नहीं होता,
हमारी राह का कोई सिरा मंजिल नहीं होता,
समझ सिंदूर हमको मांग में पीड़ा संजोती है।

मरण के खौफ से जीवन यहां खुलकर नहीं रोता,
यहीं से, हां, यही से जिंदगी आरंभ होती है!

श्रद्धालु से बड़ा इस जगत में कोई निर्भय व्यक्ति नहीं है।

सच्चे संतों की आंखों में तो स्वर्ग होता है। वहां तो जादू होता है। पापी से पापी आदमी भी सच्चे संत के सामने खड़ा हो जाए तो पुण्यात्मा हो जाता है। खड़े होने से पुण्यात्मा हो जाता है। कुछ और करना नहीं पड़ता। उसकी नजर काफी है और क्या चाहिए? उसकी नजर का जादू काफी है--और क्या चाहिए? उसकी नजर की कीमिया काफी है--और क्या चाहिए? सदगुरु तुम्हारा हाथ हाथ में ले ले, बस बहुत हो गया, अंतिम बात हो गई। सदगुरु निंदा नहीं करता। सदगुरु की खूबी ही यही है कि तुम्हारे गलत को भी रूपांतरित करता है शुभ में। तुम्हारी कामवासना को राम की वासना बना देता है। तुम्हारे क्रोध को करुणा बना देता है। तुम्हारे लोभ को दान में रूपांतरित कर देता है। तुम्हारी देह को, मांस-मज्जा, मिट्टी की बनी देह को मंदिर का ओहदा दे देता है। ‘बिरहिनी मंदिर दियना बार’... यारी ठीक कहते हैं कि देह तुम्हारा मंदिर है, शरीर तुम्हारा मंदिर है। क्यों रोते हो, इस मंदिर में दीये को जलाओ! आतिथेय बनो, अतिथि को पुकारो, आएगा इसी मंदिर में, इसी देह में। इस देह को मिट्टी कह कर इनकार मत करना, क्योंकि यह अमृत का वास है। अमृत ने इसे अपने घर की तरह चुना है। इस चुनाव में ही मिट्टी अमृत हो गई, मिट्टी मिट्टी न रही। संत की पहचान यही है कि तुम पापी की तरह जाओ और पुण्यात्मा की तरह लौटो, कि तुम रोते हुए जाओ और हंसते हुए लौटो; कि तुम जाओ ऐसे कि जैसे पहाड़ों का बोझ ढो रहे हो और आओ ऐसे कि तुम्हें पंख लग गए हैं। जहां ऐसी घटना घटती हो, चूकना मत फिर! फिर पकड़ लेना पैर, फिर गह लेना बांह, फिर आ गई घड़ी अपने को निछावर कर देने की। एक बूंद पड़ जाए अनाहत नाद की कि जीवन रूपांतरित हो जाता है। दुनिया वही होती है लेकिन तुम वही नहीं रह जाते। और जब तुम वही नहीं रह जाते तो दुनिया वही कैसे रह जाएगी? तुम्हारे देखने का ढंग बदला कि दिखाई पड़ने वाली सारी चीजें बदल जाती हैं। दृष्टि बदली तो सृष्टि बदली। आंख बदली तो जहान बदला। 


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