प्रतिफलन

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आत्मा का स्वभाव नर्तन है, और आत्मा दो तरह से नाच सकती है। इस तरह से नाच सकती है कि चारों तरफ दुख का जाल पैदा हो जाए, चारों तरफ उदासी भर जाए, चारों तरफ अंधकार पैदा हो। और आत्मा ऐसे भी नाच सकती है कि चारों तरफ किरणें नाचने लगें, और चारों तरफ फूल खिल जाएं।

‘आत्मा नर्तक है। अंतरात्मा रंगमंच है।’

और यह जो नृत्य हो रहा है, यह कहीं बाहर नहीं हो रहा है; यह तुम्हारे भीतर ही चल रहा है। यह संसार रंगमंच नहीं है; तुम्हारी अंतरात्मा ही रंगमंच है। तुम कितना ही सोचो कि तुम बाहर चले गए हो, कोई बाहर जा नहीं सकता। जाओगे कैसे बाहर? तुम रहोगे अपने भीतर ही। वहीं सब खेल चल रहा है। सब खेल वहां चलता है, फिर बाहर उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं। ऐसे जैसे तुम कभी सिनेमागृह में जाते हो, तो परदे पर सब खेल दिखाई पड़ता है; लेकिन खेल असली में तुम्हारी पीठ के पीछे प्रोजेक्टर में चलता होता है, परदे पर सिर्फ दिखाई पड़ता है। परदा असली रंगमंच नहीं है। लेकिन आंखें तुम्हारी परदे पर लगी रहती हैं और तुम भूल ही जाओगे--भूल ही जाते हो--कि असली चीज पीछे चल रही है। सारा फिल्म का जाल पीछे है, परदे पर तो केवल उसका प्रतिफलन है।
‘अंतरात्मा रंगमंच है।’ प्रोजेक्टर भीतर है। सब खेल के बीज भीतर से शुरू होते हैं, बाहर तो सिर्फ खबरें सुनाई पड़ती हैं, प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। और अगर बाहर दुख है, तो जानना कि भीतर तुम गलत फिल्म लिए बैठे हो। और बाहर तुम जो भी करते हो, गलत हो जाता है, तो उसका अर्थ है कि भीतर से तुम जो भी निकालते हो, वह सब गलत है। परदे को बदलने से कुछ भी न होगा। परदे को तुम कितना ही लीपो-पोतो, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी फिल्म अगर गलत भीतर से आ रही है, तो परदा उसी कहानी को दोहराता रहेगा। और न केवल तुम फिल्म हो, बल्कि तुम एक टूटे हुए रिकार्ड की भांति हो, जिसमें एक ही लाइन दोहरती जाती है, पुनरुक्ति होती जाती है। तुमने कभी भीतर अपनी खोपड़ी की जांच-पड़ताल की? तो तुम पाओगे, वहां वही-वही चीजें दोहरती रहती हैं टूटा हुआ रिकार्ड! तुम वही-वही दोहराते रहते हो। कुछ नया वहां नहीं घटता। और वहां तुम जो भी दोहराते हो, उसके प्रतिफलन चारों तरफ सुनाई पड़ते हैं, चारों तरफ जगत के परदे पर उसका प्रतिफलन होता है। और ये प्रतिफलन ही परमात्मा है ।

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