आध्यात्म का अर्थशास्त्र

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उम्र रहे झलमल
ज्यों सूरज की तश्तरी
डंठल पर विगत के
उगे भविष्य संदली
आंखों में धूप लाल
छाप उन ओंठों की
जिसके तन रोओं में
चंदरिमा की कली
छांह में बरौनियों के चांद कभी थके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
मन में विश्वास
भूमि में ज्यों अंगार रहे
अगरुई नजरों में
ज्यों अलोप प्यार रहे
पानी में धरा गंध
रुख में बयार रहे
इस विचार-बीज की
फसल बार-बार रहे
मन में संघर्ष फांस गड़कर भी दुखे नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
आगम के पंथ मिलें
रांगोली रंग भरे
संतिए-सी मंजिल पर
जन-भविष्य दीप धरे
आस्था-चमेली पर
न धूरी सांझ घिरे
उम्र महागीत बने
सदियों में गूंज भरे
पाप में अनीति के मनुष्य कभी झुके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं

जो जितना बांटता है इस जीवन की केसर को, उतनी बढ़ती चली जाती है। यह एक छोटा-सा बीज तुम्हारे भीतर पड़ जाए तुम्हारे हृदय में कि बांटना पाना है, पकड़ना गंवाना है, तो तुम्हारे लिए अध्यात्म का गणित समझ में आ गया। अर्थशास्त्र का एक गणित है- पकड़ो तो बचेगा, छोड़ा कि गया। आध्यात्म का गणित बिलकुल उलटा है-पकड़ा कि गंवाया, छोड़ा कि पाया। 

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