अज्ञेय, Unknowable

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जगत को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है--ज्ञात, दि नोन; अज्ञात, दि अननोन; और अज्ञेय, दि अननोएबल। जो आज ज्ञात है, कल अज्ञात था। जो आज अज्ञात है, शायद कल ज्ञात हो जाए। विज्ञान केवल दो कोटियां मानता है: ज्ञात की और अज्ञात की। विज्ञान सोचता है: एक दिन आएगा, एक घड़ी आएगी--उनके हिसाब से शुभ की घड़ी, मेरे हिसाब से दुर्भाग्य का क्षण--जिस दिन सब अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगा। उस दिन जीवन अर्थहीन होगा, उस दिन जीवन के पास न कोई नई चुनौती होगी, न खोज के लिए कोई नया आयाम होगा। नहीं, यह घटना कभी नहीं घटेगी। क्योंकि एक और कोटि है अज्ञेय की, जो सदा अज्ञेय है। जो पहले भी अज्ञेय था, अब भी अज्ञेय है और कल भी अज्ञेय रहेगा। तुम वही हो--अननोएबल। और अपने को इस भांति पहचान लेना कि मेरे भीतर अज्ञेय का वास है, स्वयं को मंदिर में बदल लेना है। क्योंकि अज्ञेय ईश्वर का दूसरा नाम है। हम उसका रस तो पी सकते हैं। उपनिषद कहते हैं: रसो वै सः। हम उसका स्वाद तो ले सकते हैं। लेकिन उसकी व्याख्या, उसकी परिभाषा, उसे नाम नहीं दे सकते। पहाड़ से जलप्रपात गिरता है, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। घने जंगलों में से हवाएं सरसराती हुई गुजरती हैं, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। क्योंकि शब्द का अर्थ होता है--ऐसी ध्वनि जिसको अर्थ दे दिया गया। तो प्रथमतः शब्द तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पहले किसी की जरूरत पड़ेगी जो उसे अर्थ दे। शब्द से बेहतर होगा कि कहें--पहले ध्वनि थी। भूल थोड़ी कम हो जाती है, लेकिन मिट नहीं जाती। क्योंकि ध्वनि को सुनने के लिए भी कोई कान चाहिए। जब कोई भी सुनने वाला नहीं है तो ध्वनि का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। शायद तुम सोचते होओगे कि जंगलों में गिरते हुए जलप्रपातों का वह स्वर-संगीत तुम्हारे चले जाने पर भी वैसा ही बना रहता है--तो तुम गलती में हो। तुम गए कि वह भी गया। वह दो के बीच था। तुम्हारे कान जरूरी थे। ध्वनि भी नहीं हो सकती। तो कौन था जो सबसे पहले था? उपनिषद बहुत ईमानदार हैं। उपनिषदों से ज्यादा ईमानदार किताबें इस जमीन पर दूसरी नहीं हैं। उपनिषद कहते हैं: वह कौन था जो पहले था? किसी को भी कोई पता नहीं। कैसे हो सकता है पता? वह कौन था जो था? उसका कोई भी तो साक्षी नहीं है। और कौन है जो अंत में रह जाएगा? उसका भी कोई साक्षी नहीं है। और अगर प्रारंभ में अज्ञेय है, और अंत में अज्ञेय है तो बीच में भी अज्ञेय ही है। तुम्हारे सब नाम-धाम झूठे हैं। तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी दीवारें झूठी हैं। तुम्हारे राष्ट्र और तुम्हारे सारे भेद झूठे हैं। ध्यान के माध्यम से अपने आप जो प्रार्थना घटित होती हो वह एकमात्र प्रक्रिया है उस अज्ञेय में उतर जाने की, जहां तुम अचानक मौन हो जाते हो। 

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