खुद पर संदेह करो


मैं अपनी पत्नी का भरोसा नहीं कर पाता हूं। वह मेरी न सुनती है, न मानती है। उसके चरित्र पर भी मुझे संदेह है। इससे चित्त उद्विग्न रहता है। क्या करूं?
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पत्नी कोई परमात्मा तो है नहीं जो तुम उस पर भरोसा करो। तुमसे कहा किसने कि पत्नी पर भरोसा करो? अरे आस्था करने को तुम्हें कुछ और नहीं मिलता? श्रद्धा करने का कुछ और नहीं मिलता? गरीब पत्नी मिली! कुछ श्रद्धा के लिए भी ऊंचाइयां खोजो।

लेकिन सिखाया गया हैः पत्नियां पतियों पर श्रद्धा करें। पति पत्नियों पर श्रद्धा करें, भरोसा रखें। भरोसा भी रख लोगे तो क्या होगा? और जब भी भरोसे की बात उठती है, उसका मतलब ही यह है कि संदेह भीतर खड़ा है, नहीं तो भरोसे का सवाल कहां है? अगर संदेह है और संदेह का लीपना है, पोतना है, छिपाना है।

और कैसे तुम भरोसा करोगे? तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है, पत्नी पर कैसे भरोसा करोगे? सुंदर स्त्री देख कर तुम्हारे मन में क्या होता है? तो तुम यह कैसे मान सकते हो कि सुंदर पुरुष को देख कर तुम्हारे पत्नी के मन में कुछ भी न होता होगा? तुम यह कह कर नहीं बच सकते कि मैं मर्द बच्चा, अरे पुरुष की बात और है! गए वे दिन, लद गए वे दिन। किसी की बात और नहीं है। तुम अपने को भलीभांति जानते हो कि जब मैं डांवाडोल होता हूं तो पत्नी भी कभी न कभी डांवाडोल होती होगी। इसलिए संदेह है।

संदेह पत्नी पर कम है, संदेह अपने पर ही ज्यादा है। पत्नी पर संदेह प्रश्न के ही बाहर है। पहले तो भरोसा करने की आवश्यकता ही नहीं है। नाहक उद्विग्न हो रहे हो! नाहक परेशान हो रहे हो! मगर बस सिखाई हैं बातें कि पत्नी को पतिव्रता होना चाहिए। एक पति! बस उस पर ही उसको अपनी नजरें टिका कर रखना चाहिए। फिर वह टिका कर रखती है नजरें तो भी मुसीबत खड़ी होती है। क्योंकि जब वह पतिव्रता होती है तो वह तुमको भी चाहती है कि तुम पत्नीव्रता होओ। फिर एक-दूसरे के तुम पीछे पड़े हो, जासूसी कर रहे हो। और जिंदगी नरक हो जाती है।

सरल बनो, सहज बनो। स्वतंत्रता में जीना सीखो। पत्नी के पास अपना बोध है, तुम्हारे पास अपना बोध है। वह अपने जीवन की हकदार है, तुम अपने जीवन के हकदार हो। यह और बात है। वह अपने जीवन की हकदार है, तुम अपने जीवन के हकदार हो। यह और बात कि तुम दोनों ने साथ रहना तय किया, तो ठीक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम एक-दूसरे के गुलाम हो। मगर सदियों की गलत शिक्षाओं ने बड़ी झंझट खड़ी कर दी है। एक से एक उपद्रव खड़े होते जाते हैं! और उपद्रव खड़े हो जाते हैं, लेकिन हमें दिखाई भी नहीं पड़ते कि उपद्रव के मूल कारण कहां हैं।

अभी परसों अखबारों में खबर थी कि कुछ गुंडे बंबई में एक स्त्री को उसके पति और बच्चों से छीन कर ले गये और धमकी दे गए कि अगर पुलिस को खबर की तो पत्नी का खात्मा कर देंगे। रात भर पति परेशान रहा, सो नहीं सका। कैसे सोएगा? प्रतीक्षा करता रहा! सुबह-सुबह पत्नी आई। इसके पहले कि पति कुछ बोले, पत्नी ने कहा मैं स्नान कर लू, फिर पूरी कहानी बताऊं। वह बाथरूम में चली गई। वहां उसने कैरोसीन का तेल अपने ऊपर डाल कर आग लगा ली और खत्म हो गई। अब सब तरफ निंदा हो रही है उन बलात्कारियों की। निंदा होनी चाहिए।

लेकिन ये लक्षण हैं। ये मूल बीमारियां नहीं हैं। बलात्कारियों की अगर तुम ठीक-ठीक खोज करोगे तो इनके पीछे महात्मागण मिलेंगे मूल कारण में। और उनकी कोई फिक्र नहीं करता। वही महात्मागण निंदा कर रहे हैं कि पतन हो गया, कलियुग आ गया, धर्मभ्रष्ट हो गया। इन्हीं नासमझों ने यह उपद्रव खड़ा कर दिया है। जब तुम काम को इतना दमित करोगे तो बलात्कार होंगे। जितना काम दमित होगा उतने बलात्कार होंगे। अगर काम को थोड़ी सी स्वतंत्रता दो, अगर काम को तुम जीवन की एक सहज सामान्य साधारण चीज समझो, तो बलात्कार अपने आप बंद हो जाए। क्योंकि न होगा दमन, न होगा बलात्कार।

अब ऐसा समझो कि तुम्हारी पत्नी अगर किसी पुरुष के साथ ताश खेल रही हो, तो कोई पाप तो नहीं हो गया, बलात्कार तो नहीं हो गया। तुम कोई पुलिस में तो नहीं चले जाओगे एकदम से। और तुमने देख लिया पत्नी को ताश खेलते हुए किसी के साथ, तो पत्नी कोई कैरोसिन डाल कर आग जला कर मर थोड़े ही जाएगी। ताश ही खेल रही थी, पाप क्या हो गया?

अगर हम काम-उर्जा को भी जीवन की सहत सामान्य चीज समझ लें...उसको इतना ऊंचा उठा कर रखा है, इतना सिर पर ढो रहे हैं, उसको इस तरह के ढोंग दे दिये हैं, पवित्रता के और धार्मिकता के ऐसे आभूषण  पहना दिये हैं, कि मुश्किल खड़ी हो गई है। उसकी वजह से कुछ लोग दमित हैं।

अब ये जो गुंडे इस स्त्री को उठा ले गये, ये स्वभावतः ऐसे लोग नहीं हो सकते  जिन्होंने  जीवन में स्त्री का प्रेम जाना हो। ये ऐसे लोग हैं जिनको स्त्री का प्रेम नहीं मिला। और शायद इनको स्त्री का प्रेम मिलेगा भी नहीं। स्त्री का प्रेम ये जबरदस्ती छीन रहे हैं। जबरदस्ती छीनने को कोई भी तैयार होता है जब उसे सहज मिले। जबरदस्ती लिए गये प्रेम का कोई मजा ही नहीं होता, कोई अर्थ ही नहीं होता।

तो सहज तो प्रेम के लिए सुविधा नहीं जुटाने देते तुम। और अगर सहज प्रेम की सुविधा जुटाओ तो कहते हो-समाज भ्रष्ट हो रहा है। ये समाज भ्रष्ट हो रहा है चिल्लाने वाले लोग ही बलात्कारियों को पैदा करते हैं। हर बलात्कारी के पीछे तुम महात्माओं को छिपा पाओगे। तुम्हारे ऋषि-मुनियों की संतान हैं ये बलात्कारी।

और फिर दूसरी तरफ भी गौर करो। किसी ने भी इस पर गौर नहीं किया। यह स्त्री घर आई, इसने आग लगा कर अपने को मार डाला, इसकी निंदा किसी ने भी नहीं की। बलात्कारियों की निंदा की। जरूर की जानी चाहिए। लेकिन इस स्त्री की निंदा किसी ने भी नहीं की। इस स्त्री ने भी मामले को बहुत भारी समझ लिया। क्योंकि इसको भी समझाया गया है, इसका सब सतीत्व नष्ट हो गया।

क्या खाक नष्ट हो गया! सतीत्व आत्मा की बात है, शरीर की बात नहीं। क्या नष्ट हो गया? जैसे आदमी धूल से भर जाता है तो स्नान कर लेता है, तो कोई शरीर नष्ट थोड़े ही हो गया, कि शरीर गंदा थोड़े ही हो गया।

यह गलत हुआ। मैं इसके समर्थन में नहीं हूं कि ऐसा होना चाहिए। लेकिन मैं इसके भी विरोध में  हूं कि किसी स्त्री को हम इस हालत में खड़ा कर दें कि उसको आग लगा कर मरना पड़े। इसके लिए हम भी जिम्मेवार हैं। बलात्कारी जिम्मेवार हैं और हम भी जिम्मेवार हैं। क्योंकि अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती तो इसको जीवन भर लांछन सहना पड़ता। जो इसको लांछन सहना पड़ता पड़ता। जो इसको लांछन देते, वे सब इसके पाप में भागीदार हुए। अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती तो इसका पति भी इसको नीची नजर से देखता, इसके बच्चे भी इसको नीची नजर से देखते, इसके पड़ोसी भी कहते कि अरे यह क्या है, दो कौड़ी की औरत! हां, अब वे सब कह रहे हैं कि सती हो गई! बड़ा गजब का काम किया! बड़ा महान कार्य किया! अब सती का चैरा बना देंगे। चलो एक और ढांढन सती हो गई! अब इनकी झांकी सजाएंगे। वही मूढ़ता।

तुम सब जिम्मेवार हो इस हत्या में। बलात्कार करवाने में जिम्मवार हो। इस स्त्री की हत्या में जिम्मेवार हो। इस स्त्री की भी निंदा होनी चाहिए। इसमें ऐसा क्या मामला हो गया? इसका कोई कसूर न था। यह कोई स्वेच्छा से उनके साथ गई नहीं थी। इस पर जबरदस्ती की गई थी। अगर कोई जबरदस्ती तुम्हारे बाल काट ले रास्ते में, तो क्या तुम आग लगा कर अपने को मार डालोगे? कि हमारा सब भ्रष्ट हो गया! हमारा मामला ही खतम हो गया।! मगर ऐसे जमाने थे कि अगर रास्तें में कोई मिल जाता और तुम्हारी मूछ काट लेता-मर गए! इज्जत चली गई! मूछ कट गई, बात खत्म हो गई!

अब मूंछ ही कट गई, आजकल तुम खुद ही जाकर रोज सफा करवा रहे हो। और ऐसा नहीं कि कोई नाई की गर्दन काट दो एकदम से कि तूने मेरी मूंछ क्यों काटी! उलटे पैसा देते हो। और नाई न मिले तो खुद ही सुबह से उठकर रेजर से सफाई करते हो। मगर यह मूंछ कभी बड़ी ऊंची चीज थी। इसकी बड़ी पूछ थी। लोग इस पर ताव दिया करते थे। और जिसकी मूंछ नीची हो गई, उसका सब गया। मूंछ सब गया। मूंछ पर ताव देकर लोग चलते थे। अकड़ का हिस्सा थी, अहंकार का हिस्सा थी।

यह सतीत्व की धारणा बचकानी है, थोथी है। यह जीवन की सहजता के अनुकूल नहीं है। पहले तो हमें, लोगों के काम-जीवन की जितनी मुक्ति दी जा सके, देनी चाहिए। जहां तक बन सके, काम-उर्जा को खेल से ज्यादा मत समझो। उसे खेल से ज्यादा गंभीर मत समझो। एक जैविक खेल, लीला; इससे ज्यादा नहीं। तो क्रांति होगी।

मगर बहुत गंभीरता से ले रहे हो। तुम कह रहे होः पत्नी पर मुझे संदेह उठता है, उसके चरित्र पर संदेह उठता है।

तुम हो कौन जिसे पत्नी के चरित्र पर संदेह उठे? तुम्हें फिक्र करनी है, अपने चरित्र की करो। पत्नी के चरित्र के तुम मालिक हो? पत्नी की आत्मा के तुम मालिक हो? पत्नी ने कोई तुम्हारे हाथ अपने को बेचा है?

नहीं रामेश्वर, संदेह करने को और बड़ी चीजें हैं  अपने पर संदेह करो। और श्रद्धा करने को भी और भी बड़ी चीजें हैं, उन पर श्रद्धा करो। कहां छोटी चीजों में उलझते हो! और फिर इन्हीं में दबे-दबे मर जाओगे, तो फिर एक दिन कहोगे कि जिंदगी यूं ही गुजर गई, कुछ अर्थ न पाया, कोई सार्थकता न पाई। पाओगे भी कहां से?

मनुष्य-जाति बहुत सी भ्रांतियों के नीचे दबी जा रही है, मरी जा रही है, सड़ी जा रही है। मगर वे भ्रांतियां इतनी पुरानी हैं और हम उनको इतना सम्मान देते रहे हैं, कि हमें ख्याल में भी नहीं आता कि वे भ्रांतियां हैं। सतियों की अभी भी पूजा चल रही है। गांव-गांव सतियों के चैरे हैं। क्या पागलपन है! स्त्रियों को जलाया, जलवाया, जलाने के आयोजन किये, हत्याएं कीं-और सम्मान दे रहे हो!

और अभी भी यही सिखाया जा रहा है। कुंवारेपन की बड़ी कीमत समझी जाती है कि किसी लड़की का कुंवारा  होना एकदम अनिवार्य है विवाह के पूर्व। क्यों? बात बिलकुल अवैज्ञानिक है। क्योंकि जिस युवती ने प्रेम का कोई अनुभव नहीं लिया, उसको तुम विवाह कर रहे हो। गैर-अनुभवी सूत्री, और अगर दुर्भाग्य से युवक भी भोंदुओं के हाथ में पला हो, तो दोनों गैर-अनुभवी। इन दोनों को बांधे दे रहे हो एक नकेल में। इनकी जिंदगी को तुमने डाल दिया गड्डे में। थोड़े-बहुत अनुभव से गुजर जाना उचित है, उपयोगी है।

अफ्रीका में इस तरह के कबीले हैं, जो इस बात की फिक्र करते हैं कि इस लड़की का कितने लोगों से प्रेम-संबंध रहा। जितने ज्यादा लोगों से प्रेम-संबंध रहा हो, उतनी ही उसकी कीमत बढ़ जाती है। मैं मानता हूं कि वे ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। आदिम, मगर ज्यादा कीमती उनका विचार है। क्योंकि जितने लोगों ने इसे प्रेम किया, इसके दो अर्थ हुए। एक कि यह स्त्री चाहने योग्य है; इतने लोगों ने चाहा तो अकारण नहीं चाहा होगा। दूसरी बातः इतने लोगों ने चाहा तो इसके जीवन में अनुभव है। उस अनुभव के आधार पर इसने कुछ परिपक्वता पाई होगी। कुंवारी लड़की को या कुंवारे लड़के का कोई अनुभव नहीं होता। दो कुंवारों को बांध  देना ऐसा ही है जैसे दो सांडों को, जिन्होंने कभी बैलगाड़ी नहीं चलाई, बांध दिया बैलगाड़ी में। तुम भी गिरोगे, सांड भी मुश्किल में पड़ेंगे और बैलगाड़ी का तो कचूमर निकल जाएगा। दुर्घटना सुनिश्चित है।

इसलिए प्रत्येक विवाह दुर्घटना हो जाती है।

अनुभव से गुजरने दो। और क्यों इतना आग्रह एकाधिपत्य का? मोनोपोली का? क्यों तुम संदेह करते हो पत्नी पर? यह एकाधिपत्य क्यों? पत्नी कोई वस्तु तो नहीं है कि तुम उसके एकमात्र मालिक हो! अगर पत्नी को रुचिकर लगता हो, किसी  और से भी प्रीतिकार संबंध उसके बनते हों, तो तुम क्यों इतने परेशान हुए जा रहे हो?

नहीं, लेकिन हमारा पुरुष का दंभ बड़ा चोट खा जाता है, तिलमिला जाता है, कि मेरे रहते और पत्नी किसी और को सुंदर समझे! और तुम कितनी स्त्रियों को समझ रहे हो अपनी पत्नी के रहते? गीता में दबाए बैठे हो हेमामालिनी का चित्र! बातें कर रहे हो कि गीता पढ़ रहे हैं, देख रहे हो हेमामालिनी का चित्र।

खुद पर संदेह करो, रामेश्वर। पत्नी को खुद सोचने दो, अपने लिए सोचने दो। उसे अपनी जीवन-धारा स्वयं नियत करने दो। किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा न बनो-फिर वह तुम्हारी पत्नी हो या पति हो या बेटा हो या बेटी हो। धार्मिक व्यक्ति का यह लक्षण होना चाहिए कि वह स्वयं की स्वतंत्रता की घोषणा करे और औरों की स्वतंत्रता का सम्मान करे। इस पृथ्वी पर जितनी स्वतंत्रता बढ़े, उतना शुभ है। हम परमात्मा को उतने ही निकट ला सकेंगे।

परमात्मा घट सकता है स्वतंत्रता के एक वातावरण में ही। इस परतंत्रता में नहीं। इन जंजीरों में नहीं। इन कारागृहों में नहीं। मुक्त होओ और मुक्त करो।
-ओशो
पुस्तकः प्रेम क्या है
प्रवचन नं. 11 से संकलित

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