राजनीति, राजनेता और देश

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प्रश्न: ओशो, इस देश के राजनेता देश को कहां लिए जा रहे हैं? समाजवाद का क्या हुआ?

भोलेराम! भोले ही रहे। राजनेताओं से, और अपेक्षा। और आश्वासनों पर भरोसा! मगर तुम ही भोले नहीं हो, सारी जनता भोली है। इस देश में तो भोलेराम, भोलेराम ही हैं। इसीलिए तो आयाराम-गयाराम उनको धोखा देते रहते हैं। तुम किसी के भी आश्वासनों पर भरोसा कर लेते हो।
यह देश सरल है। लोग सीधे-सादे हैं। राजनेता कुटिल हैं। राजनेता लोगों को उलझाए रखते हैं। बड़े-बड़े भरोसे, बड़े-बड़े नारे और लोग नारों और शब्दों के प्रभाव में आ जाते हैं। इस देश को थोड़ा सीखना पड़ेगा, इस देश को थोड़ा राजनीतिक चालबाजियों के प्रति सजग होना पड़ेगा। नहीं तो इस देश का भाग्योदय होनेवाला नहीं है।
तीस साल से ऊपर हो चुके देश को आजाद हुए, बस कोल्हू की तरह हम चक्कर लगा रहे हैं। देश की तकलीफें रोज बढ़ती ही चली गयी हैं, कम नहीं हुई हैं। और देश की तकलीफें रोज बढ़ती जा रही हैं। राजनेता को देश की तकलीफों से चिंता भी नहीं उसकी अपनी तकलीफें हैं। वह अपनी फिक्र करे कि तुम्हारी? जब तक वह पद पर नहीं होता तब तक उसकी फिक्र है कि पद पर कैसे हो? सो तुम जो भी कहो वह आश्वासन देता है। वह बात ही तुम्हारी तोड़ नहीं सकता। तुम जो कहो वह हां भरता है। उसे ‘मत’ चाहिए। जब तक वह सत्ता में नहीं पहुंचता तब तक उसकी चिंता एक है कि सत्ता में कैसे पहुंचे? और जब वह सत्ता में पहुंचता तब दूसरी चिंता, और बड़ी चिंता पैदा होती है कि अब सत्ता में बना कैसे रहे? क्योंकि चारों तरफ उसकी टांगे लोग खींच रहे हैं; कोई हाथ खींच रहा है, कोई कुर्सी का एक पैर ही ले भागा। कुर्सी को कैसे जोर से पकड़े रहे; क्योंकि कोई अकेला ही नहीं है, और भी बहुत हैं जो जद्दोजहद कर रहे हैं। धक्कम-धुक्की कुर्सियों पर इतनी ज्यादा है कि किस तरह राजनेता थोड़े दिन भी कुर्सियों पर बने रहते हैं, यह आश्चर्य की बात है।

एक ही तरकीब जानता है राजनेता कुर्सी पर बने रहने की, कि जो उसकी कुर्सी को छीनना चाह रहे हैं, उनको लड़ाता रहे। वे आपस में लड़ते रहें, उतनी देर वह कुर्सी पर बैठा रहता है। वे अगर आपस में लड़ना बंद कर दें, उसकी मुसीबत हुई। जब तक पद पर नहीं है, कैसे पद पर पहुंचे? और पहुंचना कोई आसान नहीं है; बड़ा संघर्ष है, बड़ी प्रतियोगिता है। और पद पर पहुंचते समय तुम जो कहो वह कहता है, हां; तुम्हें ना तो कह ही नहीं सकता। ना कर के क्या नाराज करेगा? उसकी भाषा में ना होता ही नहीं जब तक पद पर नहीं पहुंचता। और जब पद पर पहुंच जाता है तब उसकी मुसीबतें हैं--पद पर कैसे बना रहे? और फिर तुम उसे याद दिलाओ अपने आश्वासनों की, उसने न तो कभी सुने थे। उसने तो हां भर दी थी, तुमने क्या कहा था इसकी चिंता ही नहीं की थी। अब तुम उसे याद दिलाओ अपने आश्वासनों की, उसे याद ही नहीं आएगा। उसे तुम्हारा चेहरा भी याद नहीं आएगा। तुमसे उसे लेना-देना क्या है? जो लेना था, तुम्हारा वोट, तुम्हारा मत, वह तो ले चुका, बात खत्म हो गयी। तुमसे उतना नाता था। पांच साल के लिए अब वह सत्ता में है और तुम कुछ भी नहीं हो। पांच साल के बाद फिर तुम्हारे द्वार आएगा और वह जानता है कि तुम भोलेराम हो।
पांच साल के बाद फिर तुम्हारे आश्वासनों को, नारों को फिर पुनरुज्जीवित करेगा। फिर ऊंची बातें करेगा। फिर भविष्य के सपने तुम्हें दिखाएगा। फिर रामराज्य लाने का आश्वासन देगा। और मजा तो ऐसा है कि फिर तुम धोखा खाओगे। सदियों-सदियों से आदमी ऐसा धोखा खा रहा है।
मनौवैज्ञानिक कहते है: मनुष्य की स्मृति बहुत कमजोर है। पांच साल में भूल-भाल जाता है। और अगर बहुत याद भी रखा तो हर देश में दो पार्टियां हो जाती हैं। वे सब चचेरे-मौसरे भाई उनमें कुछ भेद नहीं। वे सब एक ही थैली के चट्टे-पट्टे हैं। मगर दो पार्टियां हो जाती हैं। दो पार्टियां जनता पर राज करने की कला है, तरकीब है। पांच साल में एक पार्टी की प्रतिष्ठा गिर जाती है। जो भी सत्ता में होगा उसकी प्रतिष्ठा गिरेगी; क्योंकि वचन पूरे नहीं होंगे, लोगों की तकलीफ बढ़ती रहेगी, उसकी प्रतिष्ठा गिर जाएगी। लेकिन पांच साल में दूसरे जो सत्ता में नहीं हैं वे अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा लेंगे; क्योंकि पांच साल पहले उन्होंने जो किया था वह तो जनता भूल-भाल चुकी। पांच साल बाद जनता बदल देगी, एक पार्टी को हटाकर दूसरे को बिठा देगी।
तुम सोचते हो ये पार्टियां दुश्मन हैं तो तुम गलती में हो। ये पार्टियां दोस्त हैं, ये एक-दूसरे के सहारे राज्य करते हैं। एक राज्य करता है, तब तक दूसरा जनता में प्रतिष्ठा कमाता है। फिर दूसरा राज्य करता है, फिर पहला जनता में प्रतिष्ठा कमाता है। इन दोनों में ज़रा भी भेद नहीं है। ये एक ही सौदे में, एक ही धंधें में साझीदार हैं।

भोलेराम, तुम भी क्या पूछते हो--इस देश के राजनेता देश को कहां लिए जा रहें हैं? कहीं नहीं लिए जा रहे हैं, यहीं, यहीं घुमा रहे हैं। उनको फुर्सत भी कहां इस देश को कहीं ले जाने की!

उत्तर दो आखिर कब तक तुम अपने ही वचनों से फिर कर
लोकतंत्र की पुनः प्रतिष्ठा का यों जय-जयकार करोगे।
कौन उलट चश्मा पहने जो दिखती नहीं तुम्हें बदहाली
नव-निर्माण नजर आती है चौतरफा फैली पामाली।
खुले मंच से केवल भाषण नारों का व्यापार करोगे।

कानों की लौ तक को क्यों छू पाती नहीं करुण चीत्कारें
प्रतिध्वनियां बन लौट-लौट आती हैं सब की सब मनुहारें।
जनजीवन का बस आकर्षण वादों से सत्कार करोगे।
क्या होगी खामोशी न कुर्सी, पद, सत्ता की घृणित लड़ाई
मानव को बौना कर बढ़ती जाएगी यों ही परछाई
देश व्यथा पर अखबारों में झूठा हाहाकार करोगे!
भोलेराम! अब अपने नेताओं से कहो: कब तक यह बकवास? अब जब तुम्हारे द्वार पर कोई ‘मत’ मांगने आए तो आसानी से हां मत भर देना। बहुत हो चुका। अब पूछना उससे कि यह कब तक चलेगा?
लोक-मानस थोड़ा सजग होना चाहिए। लोक-मानस थोड़ा जागरूक होना चाहिए। और यह मत सोचना कि एक से तुम थक गए तो दूसरे को पकड़ लोगे तो हल हो जाएगा। कुछ हल होने वाला नहीं।
-ओशो
गुरु परताप साध की संगति
प्रवचन नं 8 से संकलित 

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