संघर्ष या समर्पण


अगर तुम पूरी तरह संघर्ष छोड़ दो तो तुम्हारी वहीं ऊंचाई है, जो परमात्मा की। ऊंचाई का एक ही अर्थ है-निर्भार हो जाना। और अहंकार पत्थर की तरह लटका है तुम्हारे गले में। जितना तुम लड़ोगे उतना ही अहंकार बढ़ेगा

जीवन जीने के दो ढंग हैं। एक ढंग है संघर्ष का, एक ढंग है समर्पण का। संघर्ष का अर्थ है, मेरी मर्जी समग्र की मर्जी से अलग। समर्पण का अर्थ है, मैं समग्र का एक अंग हूं। मेरी मर्जी के अलग होने का कोई सवाल नहीं। मैं अगर अलग हूं, संघर्ष स्वाभाविक है। मैं अगर इस विराट के साथ एक हूं, समर्पण स्वाभाविक है। संघर्ष लाएगा तनाव, अशांति, चिंता। समर्पणः शून्यता, शांति, आनंद और अंततः परमज्ञान। संघर्ष से बढ़ेगा अहंकार, समर्पण से मिटेगा। संसारी वही है जो संघर्ष कर रहा है। धार्मिक वही है जिसने संघर्ष छोड़ा और समर्पण किया। मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद जाने से धर्म का कोई संबंध नहीं। अगर तुम्हारी वृत्ति संघर्ष की है, अगर तुम लड़ रहे हो परमात्मा से, अगर तुम अपनी इच्छा पूरी कराना चाहते हो-चाहे प्रार्थना से ही सही, पूजा से ही सही-अगर तुम्हारी अपनी कोई इच्छा है, तो तुम अधार्मिक हा।

जब तुम्हारी अपनी कोई चाह नहीं, जब उसकी चाह ही तुम्हारी चाह है। जहां वह ले जाए वही तुम्हारी मंजिल है, तुम्हारी अलग कोई मंजिल नहीं। जैसा वह चलाए वही तुम्हारी गति है, तुम्हारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। तुम निर्णय लेते ही नहीं। तुम तैरते भी नहीं, तुम तिरते हो...।

आकाश में कभी देखें! चील बहुत ऊंचाई पर उठ जाती है। फिर पंख भी नहीं हिलाती। फिर पंखों को फैला देती है और हवा में तिरती है। वैसी ही तिरने की दशा जब तुम्हारी चेतना में आ जाती है, तब समर्पण। तब तुम पंख भी नहीं हिलाते। तब तुम उसकी हवाओं पर तिर जाते हो। तुम तब निर्भार हो जाते हो। क्योंकि भार संघर्ष से पैदा होता है। भार प्रतिरोध से पैदा होता है। जितना तुम लड़ते हो उतना तुम भारी हो जाते हो, जितने भारी होते हो उतने नीचे गिर जाते हो। जितना तुम लड़ते नहीं उतने हल्के हो जाते हो, जितने हल्के होते हो, जितने हल्के होते हो उतने ऊंचे उठ जाते हो।

और अगर तुम पूरी तरह संघर्ष छोड़ दो तो तुम्हारी वहीं ऊंचाई है, जो परमात्मा की। ऊंचाई का एक ही अर्थ है-निर्भार हो जाना। और अहंकार पत्थर की तरह लटका है तुम्हारे गले में। जितना तुम लड़ोगे उतना ही अहंकार बढ़ेगा।

ऐसा हुआ कि नानक एक गांव के बाहर आ कर ठहरे। वह गांव सूफ़ियों का था। उनका बड़ा केंद्र था। वहां बड़े सूफी थे, गुरु थे। पूरी बस्ती ही सूफियों की थी। खबर मिली सूफियों के गुरु को, तो उसने सुबह की सुबह नानक के लिए एक कप में भर कर दूध भेजा। दूध लबालब था। एक बूंद भी और न समा सकती थी। नानक कुएं के बाहर ठहरे थे एक कुएं के तट पर। उन्होंने पास की झाड़ी से एक फूल तोड़ कर उस दूध की प्याली में डाल दिया। फूल तिर गया। फूल का वजन क्या! उसने जगह न मांगी। वह सतह पर तिर गया। और प्याली वापस भेजी दी। नानक का शिष्य मरदाना बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है? उसने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं। क्या रहस्य? यह हुआ क्या?

नानक ने कहा कि सूफियों के गुरु ने खबर भेजी थी कि गांव में बहुत ज्ञानी हैं, अब और जगह नहीं। मैंने खबर वापस भेज दी है कि मेरा कोई भार नहीं है। मैं जगह मांगूगा ही नहीं, फूल की तरह तिर जाऊंगा।

जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वजन है, अभी अज्ञानी है। और जब तुममें वजन होता है। तब तुमसे दूसरे को चोट पहुंचनी असंभव हो जाती है। अंहिसा अपने आप फलती है। प्रेम अपने आप लगता है। कोई प्रेम को लगा नहीं सकता। और न कोई करूणा को आरोपित कर सकता है। अगर तुम निर्भार हो जाओ, तो ये सब घटनाएं अपने से घटती हैं। जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध, हत्या चलती है। हलके मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने आप चलती है। इसलिए मौलिक सवाल भीतर से अहंकार को गिरा देने का है।

कैसे तुम गिराओगे अहंकार को? एक ही उपाय है। वेदों में उस उपाय को ऋत कहा है। लाओत्से ने उस उपाय को तोओ कहा है। बुद्ध ने धम्म, महावीर ने धर्म, नानक का शब्द है हुकुम, उसकी आज्ञा। उसकी आज्ञा से जो चलने लगा, जो अपनी तरफ से हिलता-डुलता भी नहीं है, जिसका अपना कोई भाव नहीं, कोई चाह नहीं, जो अपने आप को आरोपित नहीं करना चाहता, वह उसके हुक्म में आ गया। यही धार्मिक आदमी है।

और जो उसके हुक्म में आ गया, वह सब पा गया। कुछ पाने को बचता नहीं। क्योंकि उसके हुक्म को मानना, उसके हृदय तक पहुंच जाने का द्वार है। अपने को ही मानना, उससे दूर हटते जाना है। अपने को मानना है कि तुमने परमात्मा की तरफ पीठ कर ली। उसकी आज्ञा को माना कि तुम्हारा मुख परमात्मा की तरफ हो गया। तुम सूरज की तरफ पीठ कर के जीवन भर भागते रहो तो भी अंधेरे में रहोगे। और तुम सूरज की तरफ मुंह इसी क्षण कर लो तो जन्मों-जन्मों का अंधेरा कट जाएगा।

परमात्मा के सन्मुख होने का एक ही उपाय है और वह यह है कि तुम अपनी मर्जी छोड़ दो। तुम तैरो मत, बहो। तुम तिरो; वह काफी है। तुम अकारण ही बोझ ले रहे हो।

और तुम्हारी सफलताएं-असफलताएं तुम्हारे अहंकार के ही रोग हैं। और तुम्हारी हालत वैसी है, जैसा मैंने सुना है कि एक रथ गुजर रहा था। और एक मक्खी उसके पहिए की कील पर बैठी थी। बड़ी धूल उठती थी। रथ बड़ा था। बारह घोड़े जुते थे। बड़ी भयंकर आवाज, बड़ी धूल उठती थी। उस मक्खी ने आस-पास देखा और कहा कि आज मैं बड़ी धूल उड़ा रही हूं। और जब इतनी धूल उड़ा रही हूं तो इतनी ही बड़ी हूं।

तुम सफल भी होते हो उसके कारण। जो भी तुम पाते हो उसके ही कारण। तुम रथ पर बैठी एक मक्खी से ज्यादा नहीं हो। भूल कर यह मत सोचना कि इतनी धूल मैं उड़ा रहा हूं। धूल है तो उसके रथ की है। यात्रा है तो उसके रथ की। लेकिन तुम अपने को बीच में मत लेना।

तुमने सुनी होगी बात उस छिपकली की, कि मित्रों ने उसे निमंत्रित किया था और कहा कि आओ आज थोड़ा जंगल में घूम आएं। उस छिपकली ने कहा कि जाना मुश्किल है। क्योंकि इस छप्पर को कौन सम्हालेगा? छप्पर गिर जाएगा तो जिम्मेवारी मेरे ऊपर होगी। छिपकली सोचती है कि छप्पर को महल के वही सम्हाले हुए है। छिपकली को लगता भी होगा।
-ओशो
पुस्तकः एक ओंकार सतनाम
प्रवचन नं. 2 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है