अंधकार से प्रकाश की ओर


आलोक के प्रति निराश होने का कोई कारण नहीं है। वस्तुतः अंधकार जितना घना होता है, प्रभात उतना ही निकट आ जाता है...

मैं मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूं। जैसे अंधेरी रात में किसी घर का दीया बुझ जाये, ऐसा ही आज मनुष्य हो गया है। उसके भीतर कुछ बुझ गया है।

पर- जो बुझ गया है, उसे प्रज्वलित किया जा सकता है।

और, मैं मनुष्य को दिशाहीन हुआ देख रहा हूं। जैसे कोई नाव अनंत सागर में राह भूल जाती है, ऐसा ही आज मनुष्य हो गया है। वह भूल गया है कि उसे कहां जाना है और क्या होना है?

पर, जो विस्मृत हो गया है, उसकी स्मृति को उसमें पुनः जगाया जा सकता है।

इसलिए, अंधकार है, पर आलोक के प्रति निराश होने का कोई कारण नहीं है। वस्तुतः अंधकार जितना घना होता है, प्रभात उतना ही निकट आ जाता है।

मैं देख रहा हूं कि सारे जगत में एक आध्यात्मिक पुनरुत्थान निकट है और एक नये मनुष्य का जन्म होने के करीब है। हम उसकी ही प्रसव-पीड़ा से गुजर रहे हैं।

पर, यह पुनरुत्थान हम सबके सहयोग की अपेक्षा में है। वह हम से ही आने को है, और इसलिए हम केवल दर्शक ही नहीं हो सकते हैं। उसके लिए हम सब को अपने में राह देनी है।

हम सब अपने आपको आलोक से भरें तो ही प्रभात निकट आ सकता है। उसकी संभावना को वास्तविकता में परिणत करना हमारे हाथों में है।

हम सब भविष्य के उस भवन की ईंटे हैं। और, हम ही हैं वे किरणे जिनसे भविष्य के सूरज का जन्म होगा। हम दर्शन नहीं, स्रष्टा हैं।

और, इसलिए वह भविष्य का ही निर्माण नहीं, वर्तमान का भी निर्माण है। वह हमारा ही निर्माण है। मनुष्य स्वयं का ही सृजन करके मनुष्यता का सृजन करता है। व्यक्ति ही समष्टि की इकाई है। उसके द्वारा ही विकास है और क्रांति है।

वह इकाई आप हैं।

इसलिए, मैं आपको पुकारना चाहता हूं। मैं आपको निद्रा से जगाना चाहता हूं।

क्या आप नहीं देख रहे हैं कि आपका जीवन एक बिलकुल बेमानी, निरर्थक और उबा देने वाली घटना हो गया है? जीवन ने सारा अर्थ और अभिप्राय खो दिया है। मनुष्य के भीतर प्रकाश न हो तो उसके जीवन में अर्थ नहीं हो सकता है।

मनुष्य के अंतस में ज्योति न हो, तो जीवन में आनंद नहीं हो सकता है।

हमें जो आज व्यर्थ बोझ मालूम हो रहा है, उसका कारण यह नहीं है कि जीवन ही स्वयं में व्यर्थ है। जीवन तो अनंत सार्थकता है, पर हम उस सार्थकता और कृतार्थता तक जाने का मार्ग भूल गये हैं। वस्तुतः हम केवल जी रहे हैं, और जीवन से हमारा कोई संबंध नहीं है। यह जीवन नहीं है। यह केवल मृत्यु की प्रतीक्षा है

और, निश्चय ही मृत्यु की प्रतीक्षा केवल एक ऊब ही हो सकती है। वह आनंद कैसे हो सकती है?

मैं आपसे यही कहने का आया हूं कि इस दुःख-स्वप्न से बाहर होने का मार्ग है, जिसे कि आपने भूल से जीवन समझ रखा है।

वह मार्ग सदा से है। अंधकार से आलोक ले जाने वाला मार्ग शाश्वत है।

वह तो है, पर हम उससे विमुख हो गये हैं। मैं आपको उसके सन्मुख करना चाहता हूं।

वह मार्ग ही धर्म है। वह मनुष्य के भीतर दीया जलाने का उपाय है। वह मनुष्य की दिशाहीन नौका को दिशा देना है।

महावीर ने कहा हैः

जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं।

धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं।।

-संसार के जन्म और मरण के वेगवाले प्रवाह में बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और शरण है।',

क्या आप उस प्रकाश के लिए प्यासे हैं, जो जीवन को आनंद से भर देता है? और, क्या आप उस सत्य के लिए अभीप्सु हैं, जो अमृत से संयुक्त कर देता है?

मैं तब आपको आमंत्रित करता हूं-आलोक के लिए और आनंद के लिए और अमृत के लिए। मेरे आमंत्रण को स्वीकार करें! केवल आंख ही खोलने की बात है, और आप एक नये आलोक के लोक के सदस्य हो जाते हैं।

और कुछ नहीं करना है, केवल आंख ही खोलनी है। और कुछ नहीं करना है, केवल जागना है और देखना है।

मनुष्य के भीतर वस्तुतः कुछ बुझता नहीं है-और न ही दिशा खो सकती है। वह आंख बंद किये हो तो अंधकार हो जाता है और सब दिशाएं खो जाती है। आंख बंद होने से वह सर्वहारा है और आंख खुलते ही सम्राट हो जाता है।

मैं आपको सर्वहारा होने के स्वप्न से, सम्राट होने की जागृति के लिए बुलाता हूं। मै आपकी पराजय को विजय में परिणत करना चाहता हूं, और आपके अंधकार को आलोक में, और आपकी मृत्यु को अमृत में-लेकिन क्या आप भी मेरे साथ इस यात्रा पर चलने का राजी हैं?''
-ओशो
ओशो साहित्य के प्रथम सोपानः
'साधना पथ' से सकंलित