नेति, नेति...की साधना - ओशो

  

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प्यारी कुसुम, 

    प्रेम। 

            सत्य क्या है? परिभाषा में जो आ जाता है, कम से कम वह नहीं है। इसलिए, परिभाषाएं छोड़ो। व्याख्या छोड़ो। व्याख्याएं मन के खेल हैं। व्याख्याएं विचार का सृजन हैं।

            और जो है वह मन के पार है। जैसे, लहरें झील की शांति से सदा अपरिचित रहती है; ऐसे ही विचार भी अस्तित्व से कभी परिचित नहीं हो पाते हैं, क्योंकि जब लहरें होती हैं, तब उनके ही कारण झ लि शांत नहीं होती है और जब झील शांत होती है, तब उसकी शांति के कारण ही लहरें नहीं होती हैं। फिर, जो है, उसे जानना है। उसकी व्याख्या उसे जानने से बहुत भिन्न बात है।

            लेकिन, व्याख्या धोखा दे सकती है। खेतों में जैसे धोखे के आदमी खड़े रहते हैं, असली आदमियों के वस्त्र पहन कर; ऐसे ही शब्द सत्यों के धोखे बन जाते हैं। सत्य के खोजी को शब्दों से सावधान होने की जरूरत है। शब्द सत्य नहीं हैं। सत्य शब्द नहीं है। सत्य है अनुभूति। सत्य है अस्तित्व।

            और उस तक पहुंचने का मार्ग है : नेति, नेति। (न यह, न वह ।) व्याख्याओं को काटो। परिभाषाओं को काटो। शास्त्रों को काटो। सिद्धांतों को काटो। कहो : नेति, नेति। (छवज जीपे, दवज जीज) फिर स्वर-पर को काटो। कहा : नेति, नेति। और तव-निपट शून्य में जो प्रकट होता है, वही सत्य है। क्योंकि, बस वही है और शेष सब स्वप्न है। कपिल को प्रेम। असंग को आशिष। 

रजनीश के प्रणाम 

२६-११-१९७० प्रति : सुश्री कुसुम, लुधियाना, पंजाब

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