छोड़ो स्वयं को और मिटो - ओशो

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मेरे प्रिय, 

    प्रेम। 

            प्रेम भी आग है। ठंडी आग! फिर भी उसमें जलना तो पड़ता ही है। लेकिन, वह निखारता भी है। निखारने के लिए ही वह जलाती है। कूड़ा-कर्कट जल जाता है, तभी तो शुद्ध स्वर्ण उपलब्ध होता है। ऐसे ही मेरा प्रेम भी पीड़ा बनेगा। मैं तुम्हें मिटा ही डालूंगा क्योंकि तुम्हें बनाना है। वीज को तोड़ना ही होगा-अन्यथा वृक्ष का जन्म कैसे होगा? सरिता को समाप्त करना ही पड़ेगा अन्यथा वह सागर वनने से वंचित ही रह जाएगी इसलिए, छोड़ो स्वयं को और मिटो। क्योंकि, स्वयं को पाने का और कोई मार्ग नहीं है। 



रजनीश के प्रणाम
२५-१९-१९७० प्रति : श्री सरदारीलाल सहगल, न्यू मिसरी बाजार, अमृतसर

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