समर्पण-एक अनसोची छलांग - ओशो
प्रिय सावित्री,
प्रेम।
सुरक्षा है ही नहीं कहीं-सिवाय मृत्यु के। जीवन असुरक्षा का ही दूसरा नाम है। इस सत्य की पहचान से सुरक्षा की आकांक्षा स्वतः ही विलीन हो जाती है। असुरक्षा की स्वीकृति ही असुरक्षा से मुक्ति है। मन में दुविधा रहेगी ही। क्योंकि, वह मन का स्वभाव है। उसे मिटाने की फिकर छोड़। क्योंकि, वह भी दुविधा ही है। दविधा को रहने दे-अपनी जगह। और तू ध्यान में चल। तू मन नहीं है। इसलिए, मन से क्या वाधा है ? अंधेरे को रहने दे-अपने जगह। तू तो दिया जला। समर्पण क्या सोच-सोच कर करेगी? पागल! समर्पण अनसोची छलांग है। छलांग लगा या न लगा। लेकिन कृपा कर सोच विचार मत कर।
रजनीश के प्रणाम
२६-११-१९७० प्रति : डा. सावित्री सी. पटेल, मोहनलाल, डी. प्रसूति गृह, प्रो. किल्ला पारडी, जिलाबुलसारा, गुजरात
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