संवेदनशीलता




अभी पश्चिम में एक नया आंदोलन चलता है–विशेषकर अमरीका में–संवेदनशीलता को बढ़ाने का। क्योंकि अमरीका को अनुभव होना शुरू हुआ है कि आदमी की संवेदनशीलता समाप्त हो गई है, सेंसिटिविटी समाप्त हो गई है। हम छूते हैं, लेकिन छूना हमारा बिलकुल मुर्दा है। हम देखते हैं, लेकिन आंखें हमारी पथराई हुई हैं। हम सुनते हैं, लेकिन कानों पर आवाज ही पड़ती है, हृदय तक कोई संवेदन नहीं पहुंचता। हम प्रेम भी करते हैं, हम प्रेम की बात भी करते हैं, लेकिन प्रेम हमारा बिलकुल निष्प्राण है। हमारे प्रेम के हृदय में कोई धड़कन नहीं है। हमारा प्रेम बिलकुल कागजी है। हम सब कुछ करते हैं, लेकिन ऐसा मालूम होता है कि हमारे किसी भी करने में कोई संवेदना नहीं रह गई है। संवेदनाशून्य, जड़, यंत्रवत हम उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सब हम कर लेते हैं। संवेदना वापस लाई जानी जरूरी है। तो मनसविद कह रहे हैं कि अगर हम आदमी की संवेदना वापस न ला सके, तो हम आदमी को पृथ्वी पर इस सदी के आगे बचा नहीं सकेंगे। अभी तक व्यक्ति पागल होते रहे थे; अब समूहगत रूप से लोग पागल हो जाएंगे। संवेदना वापस लौटानी पड़ेगी। लेकिन संवेदना वापस कैसे लौटे? और संवेदना खो क्यों गई है? आपको भी याद होगा–अगर आपको बचपन की कोई स्मृति है तो आपको याद होगा–अगर बगीचे में फूल खिल गया है, तो जैसा बचपन में वह आपको दिखाई पड़ा था खिलता हुआ, वैसा अब भी फूल खिलता है लेकिन आपको दिखाई नहीं पड़ता। सूरज बचपन में भी उगता था, वही सूरज अब भी उगता है; लेकिन अब सूरज के उगने से हृदय में कोई नृत्य पैदा नहीं होता। चांद अब भी निकलता है, अब भी आप आंख उठा कर कभी चांद को देख लेते हैं, लेकिन चांद आपको स्पर्श नहीं करता। क्या हो गया है? लाओत्से जो कह रहा है, आलिंगन टूट गया है। बुद्धि और एंद्रिक तल दो हो गए हैं। इंद्रियों में संवेदना होती है, बुद्धि संवेदना को अनुभव करती है। अगर दोनों टूट जाएं, तो संवेदना होनी बंद हो जाती है। इंद्रियां जड़ हो जाती हैं और बुद्धि तक कोई खबर नहीं पहुंचती। और जीवन का काव्य और जीवन का संगीत और जीवन का रस, सभी कुछ सूख जाता है। बच्चे एक स्वर्ग में रहते हुए मालूम पड़ते हैं, इसी जमीन पर, जहां हम हैं। लेकिन उनके स्वर्ग में रहने का कोई और कारण नहीं है, सिर्फ इतना ही कारण है कि अभी उनकी इंद्रिय-आत्मा और उनकी बुद्धि-आत्मा में फासला नहीं पड़ा है। अभी जब वे भोजन करते हैं, तो शरीर ही भोजन नहीं करता, उनकी पूरी आत्मा भी उस भोजन से आनंदित होती है। अभी जब वे नाचते हैं, तो सिर्फ शरीर ही नहीं नाचता, उनकी आत्मा भी नाचती है। अभी जब वे दौड़ते हैं, तो उनका शरीर ही नहीं दौड़ता, उनकी आत्मा भी दौड़ती है। अभी वे संयुक्त हैं। अभी उनके भीतर भेद पड़ना शुरू नहीं हुआ। अभी वे अद्वैत में हैं। अभी वे दो नहीं हुए, अभी एक हैं। इसलिए बच्चा जिन आनंद को अनुभव कर पाता है, उनको हम अनुभव नहीं कर पाते। और बच्चा जिस प्रेम को अनुभव कर पाता है, उस प्रेम को हम अनुभव नहीं कर पाते। होना तो उलटा चाहिए कि हम ज्यादा अनुभव कर सकें, क्योंकि हमारी अनुभव की क्षमता और हमारे अनुभव का संग्रह बड़ा है। लेकिन हम अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि अनुभव करने की जो प्रक्रिया है, वही हमारी टूट गई है। लाओत्से कहता है, यह द्वैत हमारे भीतर पैदा होता है हमारी बुद्धि और हमारी इंद्रियों के बीच फासले के निर्माण से।
 
ताओ उपनिषद 

 ओशो