आंखें नहीं हैं हमारे पास, अन्यथा सब जगह हमें विराट का दर्शन हो जाए। आंखें नहीं हैं हमारे पास, अन्यथा सभी जगह ब्रह्मांड है। कृष्ण तो सिर्फ निमित्त हैं। यशोदा को दिखाई पड़ सकता है ब्रह्मांड उनके मुख में। ऐसे भी किस मां को अपने बेटे के मुख में ब्रह्मांड नहीं दिखाई पड़ता है? ऐसे भी किस मां को अपने बेटे में ब्रह्म नहीं दिखाई पड़ता है? खो जाता है धीरे-धीरे, यह बात दूसरी। लेकिन पहले तो दिखाई पड़ता है! यशोदा को दिखाई पड़ सका कृष्ण के मुंह में विराट, ब्रह्म, ब्रह्मांड, सभी मां को दिखाई पड़ता है। लेकिन यशोदा पूरे अर्थों में मां थी, इसलिए पूरी तरह दिखाई पड़ सका है। और कृष्ण पूरे अर्थों में बेटा था, इसलिए निमित्त बन सका है। इसमें कुछ मिरेकल नहीं है। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। अगर आप प्रेम से मुझे भी देख सकें, तो ब्रह्मांड दिखाई पड़ सकता है। देखने वाली आंखें चाहिए, एक। और योग्य निमित्त चाहिए, बस। एक छोटे से फूल में दिख सकता है सारा जगत। है भी छिपा। यहां अणु-अणु में विराट छिपा है। एक छोटी सी बूंद में पूरा सागर छिपा है। एक बूंद को कोई पूरा देख ले तो पूरा सागर दिख जाएगा।
अर्जुन को भी दिखाई पड़ सका, वह भी कुछ कम प्रेम में न था कृष्ण के। ऐसी मैत्री कम घटित होती है पृथ्वी पर, जैसी वह मैत्री थी। उस मैत्री के क्षण में अगर कृष्ण निमित्त बन गए और अर्जुन को दिखाई पड़ सका, तो कुछ आश्र्चर्य नहीं है, न कोई चमत्कार है। और ऐसा नहीं है कि एक ही बार ऐसा हुआ है, ऐसा हजारों बार हुआ है। उल्लेख नहीं होता है, यह बात दूसरी है; संगृहीत नहीं होता है, यह बात दूसरी है।
यह जरूर समझने जैसा है कि क्या दी गई दिव्य-दृष्टि वापस ली जा सकती है?
न तो दिव्य-दृष्टि दी जा सकती है, और न वापस ली जा सकती है। किसी क्षण में दिव्य-दृष्टि घटित होती है और खो सकती है। दिव्य-दृष्टि एक हैपनिंग है। किसी क्षण में आप अपनी चेतना के उस शिखर को छू लेते हैं, जहां से सब साफ दिखाई पड़ता है। लेकिन उस शिखर पर जीना बड़ा कठिन है। जन्म-जन्म लग जाते हैं उस शिखर पर जीने के लिए। उस शिखर से वापस लौट आना पड़ता है। जैसे जमीन से आप छलांग लगाएं, तो एक क्षण को जमीन के ग्रेवीटेशन के बाहर हो जाते हैं। खुले आकाश में, मुक्त पक्षियों की तरह हो जाते हैं। एक क्षण के लिए। लेकिन बीता नहीं क्षण कि आप जमीन पर वापस हैं। एक क्षण को पक्षी होना आपने जाना। ठीक ऐसे ही चेतना का ग्रेवीटेशन है, चेतना की अपनी कशिश है, चेतना के अपने चुंबकीय तत्व हैं जो उसे नीचे पकड़े हुए हैं। किसी क्षण में, किसी अवसर में, किसी सिचुएशन में आप इतनी छलांग ले पाते हैं कि आपको विराट दिखाई पड़ जाता है--एक क्षण को। जैसे बिजली कौंध गई हो। फिर आप वापस जमीन पर आ जाते हैं। निश्र्चित ही अब आप वही नहीं होते जो इस दर्शन के पहले थे। हो भी नहीं सकते। क्योंकि एक क्षण को भी अगर इस विराट को देख लिया, तो अब आप वही नहीं हो सकते जो पहले थे। आप दूसरे हो गए। लेकिन वह जो दिखा था, वह खो गया।
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