मार्टिन बूबर
मैं नहीं कहूंगा। मैं कहूंगा, यह आस्तिक भी बहुत गहरे में अभी नास्तिक है। क्योंकि अभी भी मैं और तू में जगत को बांट पाता है। या ऐसा कहें कि यह द्वैतवादी आस्तिक का जगत है। लेकिन द्वैतवाद चूंकि झूठा है, इसलिए द्वैतवादी आस्तिकता का भी कोई अर्थ नहीं होता। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है। क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ; और एक अर्थ में आत्मवादी अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह भी कहता है, एक ही है, आत्मा है। अब मेरा मानना है कि एक ही से एक पर जाना बहुत आसान है, दो से एक पर जाना बहुत कठिन है। इसलिए द्वैतवादी नास्तिक से भी ज्यादा उलझन में होता है। क्योंकि किसी दिन अगर नास्तिक अद्वैतवादी को यह दिखाई पड़ जाए कि पदार्थ नहीं है, आत्मा है, तो यात्रा तत्काल बदल जाती है। एक तो वह मानता ही था। वह एक क्या है, इसकी व्याख्या पर झगड़ा था। वह पदार्थ है कि परमात्मा है? लेकिन द्वैतवादी की झंझट और गहरी है। द्वैतवादी मानता है, दो हैं। पदार्थ भी है, परमात्मा भी है। इसे एक पर पहुंचना बहुत मुश्किल है। बूबर द्वैतवादी है। वह कहता है, मैं और तू। लेकिन उसका द्वैतवाद बहुत मानवीय है। क्योंकि वह को मिटा देता है, तू का दर्जा देता है दूसरे को भी, आत्मा का दर्जा देता है। लेकिन मैं और तू के बीच संबंध ही हो सकते हैं, एकता नहीं हो सकती, ऐक्य नहीं हो सकता। संबंध कितने ही गहरे हों, तब भी फासला बना रहता है। अगर मैं आपसे संबंधित हूं, कितना ही गहरा संबंधित हूं, तब भी मेरा और आपका संबंध, मुझे और आपको दो में तोड़ता है। संबंध जोड़ता भी है, तोड़ता भी है। वह दोहरे काम करता है। जिससे हम जुड़ते हैं, उससे हम टूटे हुए भी होते हैं। जिस जगह हमारा जोड़ होता है, वही हमारी टूट भी होती है। जो हमारा सेतु है, वही हमें दो तटों में भी तोड़ देता है। जो सेतु जोड़ता है, वह तोड़ता भी है। असल में जोड़ने वाली कोई भी चीज तोड़ने वाली भी होती है। होगी ही। अनिवार्य है वह। इसलिए दो कभी एक नहीं हो पाते, कितने ही गहरे संबंध हों, संबंध कभी भी एक नहीं हो पाते। इसलिए गहरे से गहरा संबंध भी दो बनाए रखता है।
प्रेम का कितना ही गहरा संबंध हो, उसमें दो नहीं मिटते। और जब तक दो नहीं मिटते, तब तक प्रेम तृप्त नहीं हो सकता। इसलिए सब प्रेम अतृप्त होते हैं। दो तरह की अतृप्तियां हैं प्रेम की--प्रेमी न मिले तो, और मिल जाए तो। प्रेमी न मिले तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह नहीं मिला, और प्रेमी मिल जाए तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह मिल तो गया, लेकिन मिलना कहां हो पा रहा है! फासला खड़ा ही है। दूरी बनी ही है। पास आ गए हैं बहुत, लेकिन कहां दूरी मिटती है! इसलिए कई बार, जिसको अपना प्रेमी नहीं मिलता वह भी उतना दुखी नहीं होता, जितना दुखी वह हो जाता है जिसे उसका प्रेमी मिल जाता है। क्योंकि जिसको नहीं मिलता उसे एक आशा तो रहती है कि कभी मिल सकता है। इसकी वह आशा भी टूट जाती है, कि अब क्या होगा? मिल तो गया है, लेकिन मिलना नहीं हो पा रहा है।
असल में कोई मिलन मिलन नहीं बन सकता, क्योंकि मिलन में संबंध ही है और संबंध दो बनाए रखता है। इसलिए मार्टिन बूबर मैं और तू के गहरे संबंधों की बात करता है, जो बड़ी मानवीय है। और इस जगत में, जो कि निरंतर पदार्थवादी होता चला गया है, मार्टिन बूबर की बात भी बड़ी धार्मिक मालूम होती है। लेकिन मुझे मालूम नहीं होती। मैं तो कहूंगा, यह बात धार्मिक नहीं है, सिर्फ समझौता है, यह मैं और तू के बीच अगर एकता न हो सके, तो कम से कम संबंध ही हो।प्रेम और उपासना में यही फर्क है। प्रेम संबंध है, उपासना असंबंध है। असंबंध का मतलब यह नहीं कि दो असंबंधित हो गए। असंबंध का मतलब यह कि दो के बीच से संबंध गिर गया, रिलेशनशिप भी गिर गई। वह जो संबंध था, वह भी गिर गया; अब दो दो ही न रहे, वे एक ही हो गए। यह जो एक हो जाना है, यह उपासना है। इसलिए प्रेम का अगला कदम उपासना है। और जिसे हम प्रेम करते हैं उससे हम तब तक पूरी तरह नहीं मिल सकते जब तक वह दिव्य न हो जाए, भागवत न हो जाए, भगवान न हो जाए। दो मनुष्यों का मिलन असंभव है। उनका मनुष्य होना ही बाधा देता रहेगा। दो मनुष्य ज्यादा से ज्यादा संबंधित हो सकते हैं। दो परमात्म-तत्व ही मिल सकते हैं, क्योंकि फिर तोड़ने वाला कोई भी नहीं रह जाता। जोड़ने वाला भी कोई नहीं रह जाता।
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