अंतरात्मा की ऊर्जा
एक तो ऐसी शक्ति है जो देखी जा सकती है, और एक ऐसी शक्ति है, जो सदा देखने वाले में होती है; जो दृश्य में नहीं होती, बल्कि द्रष्टा में होती है। एक तो आब्जेक्टिव एनर्जी है, जिसे हम देख सकते हैं--बिजली है। एक सब्जेक्टिव एनर्जी है, एक अंतरात्मा की ऊर्जा है, जिसे हम कभी भी नहीं देख सकते। क्योंकि हम उसी के द्वारा देख रहे हैं। या और भी उचित होगा कहना कि हम स्वयं वह ऊर्जा हैं। और ऐसा नहीं है कि वह ऊर्जा बाहर नहीं है। वह बाहर भी है। लेकिन उसे देखने का ढंग पहले भीतर उसके अनुभव से शुरू होता है।
और जो व्यक्ति उस ऊर्जा को अपने भीतर अनुभव कर लेता है, उसे वह सब जगह प्रत्यक्ष हो जाती है। जो उस ज्योति को भीतर देख लेता है, उसके लिए सारे जगत में उस ज्योति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाता। लेकिन उसका पहला अनुभव, पहली दीक्षा, उसका पहला संस्पर्श भीतर होगा। वह अंतर्तम ऊर्जा है। तो परमात्मा की खोज कोई बहिर्खोज नहीं है। न तो उसे खोजने के लिए हिमालय जाना जरूरी है, न तिब्बत के पर्वतों में भटकना। न मक्का-मदीना कुछ साथ देंगे, न काशी और प्रयाग, न गिरनार, न जेरूसलम। कोई बाहर की खोज परमात्मा नहीं है। इसलिए कोई मंदिर, कोई तीर्थ उसकी जगह नहीं है। इससे कठिनाई बहुत बढ़ जाती है। अगर वह किसी मंदिर में होता, किसी तीर्थ में होता, वह चाहे तीर्थ हो एवरेस्ट के शिखर पर, कैलाश पर, तो भी कोई अड़चन न थी, हम वहां पहुंच ही जाते। वह सरल बात थी। बाहर की यात्रा जरा भी कठिन नहीं है। कितनी भी अड़चन हो, बाहर की यात्रा कठिन नहीं है। वहां हम पहुंच ही जाते। लेकिन परमात्मा की तरफ पहुंचने की कठिनाई यही है कि वह खोज के अंत में नहीं है, वह खोजी के भीतर प्रारंभ से ही मौजूद है। वह कोई मंजिल नहीं है; वह यात्री का अंतस्तल है।
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