मीरा

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मीरा नाचती गई। द्वार पर नाचने लगी, भीड़ लग गई। नाच ऐसा था, ऐसा रस भरा था कि मस्त हो गए द्वारपाल भी, भूल ही गए कि रोकना है। तलवारें तो हाथ में रहीं मगर स्मरण न रहा तलवारों का। और मीरा नाचती हुई भीतर प्रवेश कर गई। पुजारी पूजा कर रहा था, मीरा को देख कर उसके हाथ से थाल छूट गया पूजा का। झनझना कर थाल नीचे गिर पड़ा। चिल्लाया क्रोध से कि ऐ स्त्री, तू भीतर कैसे आई? बाहर निकल!

मीरा ने जो उत्तर दिया, बड़ा प्यारा है। मीरा ने कहा, मैंने तो सुना था कि एक ही पुरुष है--परमात्मा, कृष्ण--और हम सब तो उसकी ही सखियां हैं, मगर आज पता चला कि दो पुरुष हैं। एक तुम भी हो! तो तुम सखी नहीं हो! तुम क्यों ये श्रृंगार किए खड़े हो, निकलो बाहर! इस मंदिर का पुरोहित होने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं। यह पूजा की थाली अच्छा हुआ तुम्हारे हाथ से गिर गई। यह पूजा की थाली तुम्हारे हाथ में होनी नहीं चाहिए। तुम्हें अभी स्त्री दिखाई पड़ती है? तीस साल से स्त्री नहीं देखी तो तुम मुझे पहचान कैसे गए कि यह स्त्री है? यूं न देखी हो, सपनों में तो बहुत देखी होगी! जो दिन में बचते हैं, वे रात में देखते हैं। इधर से बचते हैं तो उधर से देखते हैं। कोई न कोई उपाय खोज लेते हैं। और मीरा ने कहा कि यह जो कृष्ण की मूर्ति है, इसके बगल में ही राधा की मूर्ति है--यह स्त्री नहीं है? और अगर तुम यह कहो कि मूर्ति तो मूर्ति है, तो फिर तुम्हारे कृष्ण की मूर्ति भी बस मूर्ति है, क्यों मूर्खता कर रहे हो? किसलिए यह पूजा का थाल और यह अर्चना और यह धूप-दीप और यह सब उपद्रव, यह सब आडंबर? और अगर कृष्ण की मूर्ति मूर्ति नहीं है, तो फिर यह राधा? राधा पुरुष है? तो मेरे आने में क्या अड़चन हो गई? मैं सम्हाल लूंगी अब इस मंदिर को, तुम रास्ते पर लगो!

जीवन को अगर कोई पलायन करेगा तो परिणाम बुरे होंगे। पराङ्‌मुख मत होना। जीओ जीवन को, क्योंकि जीने से ही मुक्ति का अपने आप द्वार खुलता है।

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