समदर्शन, शिवतुल्य
जब कोई व्यक्ति समदर्शन में ठहर जाता है, वह शिवतुल्य हो जाता है। फिर वह स्वयं परमात्मा हो गया। तुम तभी तक ‘मैं’ हो, जब तक तुम्हें अपना पता नहीं है। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगती है। तुम तभी तक चिल्लाए चले जा रहे हो मैं, मैं, मैं, जब तक तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। जिस दिन तुम्हें पता लगेगा, उसी दिन ‘मैं’ भी गिर जाएगा, ‘तू’ भी गिर जाएगा। उस दिन तुम शिवतुल्य हो जाओगे। उस दिन तुम स्वयं परमात्मा हो। उस दिन अहर्निश नाद उठेगा--अहं ब्रह्मास्मि! उस दिन तुम यह दोहराओगे नहीं, यह तुम जानोगे। उस दिन यह तुम्हें समझना नहीं पड़ेगा; यह तुम्हारा अस्तित्व होगा, यह तुम्हारी अनुभूति होगी। उस दिन सब तरफ एक का ही नाद, एक का ही निनाद होगा। जैसे बूंद सागर में खो जाए, सीमा मिट जाए, असीम हो जाए! तब तुम शिवतुल्य हो जाओगे।
शिव की यही चेष्टा है। बुद्धों का यही प्रयास है कि तुम भी उन जैसे हो जाओ। उन्होंने जो जाना है परम आनंद, वह तुम्हारी भी संपदा है। तुम अभी बीज हो, वे वृक्ष हो गए। वे वृक्ष तुम से यही कहे चले जा रहे हैं कि तुम बीज मत बने रहो, तुम भी वृक्ष हो जाओ। और तब तक तुम्हें शांति न मिलेगी जब तक तुम शिवतुल्य न हो जाओ। इससे कम में आदमी राजी होने वाला नहीं। इससे कम में आत्मा तृप्त न होगी; प्यास बनी ही रहेगी। कितना ही पीओ संसार का पानी, प्यास बुझेगी नहीं, जब तक कि परमात्मा के घट से न पी लोगे। तब प्यास सदा के लिए खो जाती है। सब वासनाएं, सब दौड़, सब आपाधापी समाप्त हो जाती है; क्योंकि तुम वह हो गए, जो परम है। उसके ऊपर फिर कुछ और नहीं। तुरीय अवस्था में एसे मग्न हो जाओ कि स्व-चित्त में प्रवेश हो; ताकि प्राण-समाचार मिले; ताकि तुम जान सको कि सबमें एक ही विराजमान है, समदर्शन हो; ताकि तुम शिवतुल्य हो जाओ।
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