अस्तित्वगत व्यक्तित्व

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पश्र्चिम के बहुत बड़े विचारक इमेनुअल कांट ने अपने नीति के सिद्धांतों में एक सिद्धांत की चर्चा की है, कि मैं उस बात को अनैतिक कहता हूं जिसको सभी लोग मान लें तो जिसका करना असंभव हो जाए। जैसे सभी लोग तय कर लें कि हम झूठ ही बोलेंगे। उदाहरण के लिए, सारी दुनिया तय कर ले कि हम झूठ ही बोलेंगे, सच कोई बोलेगा ही नहीं। बस झूठ बोलना बेकार हो जाएगा। जब सब ही झूठ बोलेंगे तो झूठ बोलने का सार क्या होगा? तुम भी जानते हो कि दूसरा झूठ बोल रहा है; दूसरा भी जानता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। झूठ बोलने का उपयोग तभी तक है जब तक यह भ्रांति बनी रहती है कि झूठ नहीं है यह, सच है; जब तक कोई तुम पर भरोसा करने को राजी होता है। दुनिया में अनीति चल सकती है नीति के ही पैरों पर। झूठ के अपने पैर नहीं होते; उसे सत्य से उधार लेने होते हैं। झूठ का अपना चेहरा ही नहीं होता; उसे सत्य का मुखौटा लगाना पड़ता है।

तो तुम्हारी तथाकथित आस्तिकता मुखौटों से ज्यादा नहीं है। हटाओ ये मुखौटे! इससे बेहतर है अपना चेहरा हो--नास्तिक का ही सही। और हर बच्चा नास्तिक की तरह ही पैदा होता है। यही परमात्मा की प्रक्रिया है। इसलिए बच्चे इस दुनिया में जो सबसे पहला काम करते हैं, वह नहीं कहने का करते हैं। जैसे ही बच्चा थोड़ी उम्र पाता है--चार साल का, पांच साल का हुआ--कि वह नहीं कहने की धुन में पड़ जाता है। तुम जो भी उससे कहोगे, वह उसके विपरीत करेगा। तुम कहोगे कि सिगरेट मत पीना तो वह सिगरेट पीएगा। तुम कहोगे सिनेमा मत जाना तो वह सिनेमा जाएगा। वह तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन करेगा। यह नैसर्गिक प्रक्रिया है। वह नहीं कह रहा है--अस्तित्वगत नहीं। और नहीं कह कर वह अपने व्यक्तित्व को तुमसे मुक्त कर रहा है। जैसे नौ महीने के बाद बच्चे को मां के गर्भ के बाहर आना पड़ता है--उसके बाद मां के गर्भ में नहीं रह सकता; इतना बड़ा हो गया कि अब उसे गर्भ से मुक्त होना पड़ेगा--ऐसे ही चार-पांच साल का होते-होते नहीं सीखना पड़ता है उसे, क्योंकि अब वह तुम्हारे मनोवैज्ञानिक गर्भ से मुक्त होना चाहता है। अब वह चाहता है अपना व्यक्तित्व हो, अपनी निजता हो। और अपनी निजता तभी हो सकती है जब वह तुम्हारी आज्ञाओं का उल्लंघन करे। धीरे-धीरे नहीं कह-कह कर वह तुमसे अपने को मुक्त कर लेगा। जवान होते-होते वह नहीं में पारंगत हो जाएगा।

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