अजीब बात देखी? कि चूंकि सारे शास्त्र पुरुषों ने लिखे। और ये सारे भगोड़े पुरुष थे। पुरुष ऐसा लगता है ऊपर-ऊपर से ही बहादुर है, भीतर-भीतर बहुत कायर। भीतर-भीतर बहुत पोला। बाहर-बाहर बड़ी अकड़। चूंकि यह सारे स्वर्गों की योजनाएं और कल्पनाएं पुरुषों ने कीं, इसमें उन्होंने पुरुषों के भोग का तो इंतजाम किया है, लेकिन स्त्रियों के भोग का कोई इंतजाम नहीं किया है। सुंदर लड़कियां होंगी, बड़ी खूबसूरत अप्सराएं होंगी। मगर कुछ इंतजाम स्त्रियों के लिए भी तो करो! सुंदर युवकों का कुछ इंतजाम करो! जरूर कुछ धर्मों ने सुंदर युवकों का भी इंतजाम किया है, लेकिन वह भी स्त्रियों के लिए नहीं, वह भी पुरुषों के लिए। जिन देशों में समलैंगिकता की बीमारी प्रचलित रही है, उन देशों में वे सुंदर लड़के आयोजित किए हैं उन्होंने स्वर्ग में, लेकिन वे भी पुरुषों के लिए। किसीभी धर्म में जब दो पुरुष लड़ते भी है तो गालियां भी उनकी सुनो उनकी एक दूसरे के घरकी स्त्रीओ पे होती है ।
सच तो यह है कि बहुत-से देशों में यह धारणा रही कि स्त्री में कोई आत्मा ही नहीं होती। जब आत्मा ही नहीं, तो कैसा स्वर्ग! पुरुष मरता है तो देह तो भस्मीभूत होती है और स्त्री मरती है तो सब भस्मीभूत हो जाता है। पुरुष मरता है तो सिर्फ पींजड़ा अर्थी पर चढ़ता है, पक्षी स्वर्ग की तरफ चल पड़ता है--जीवात्मा, परमहंस। और स्त्री मरती है तो सभी राख हो जाता है--कोई आत्मा तो है ही नहीं स्त्री में! इसलिए स्त्री के लिए स्वर्ग में कोई इंतजाम नहीं है। कोई व्यवस्था नहीं। न साड़ियों की दुकानें; न जौहरी, न जवाहरात; न सोना, न चांदी; कुछ भी नहीं। कारण साफ है। इंतजाम पुरुषों ने किया है, वे क्या फिक्र करें स्त्रियों की! अपने लिए इंतजाम कर लिया है उन्होंने। अपने लिए सब व्यवस्था कर ली है। स्त्री तो आत्मारहित है!
इसलिए बहुत-से धर्मों में स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं, स्वर्ग में प्रवेश का तो क्या अधिकार होगा! मस्जिदों में प्रवेश का अधिकार नहीं। सिनागागों में प्रवेश का अधिकार नहीं। स्वर्ग की तो बात ही छोड़ दो! और मोक्ष का तो सवाल ही न उठाना! इस देश के साधु-संत भी समझाते रहे कि स्त्री नरक का द्वार है। और स्त्री अगर नरक का द्वार है तो ये उर्वशी और मेनकाएं स्वर्ग कैसे पहुंच गईं! ऋषि-मुनियों के लिए कुछ तो इंतजाम करना होगा--पीछे के दरवाजे से सही। इनको घुसा दिया होगा पीछे के दरवाजे से। और ये जो स्वर्ग में अप्सराएं हैं, ये सदा युवा रहती हैं। ये कभी वृद्धा नहीं होतीं। ये कर्कशा नहीं होतीं। ये लड़ाई-झगड़ा नहीं करतीं। इनका तो कुल काम है: नाचना, गाना, देवताओं को लुभाना, भरमाना।
ये सारी कल्पनाएं किसने की हैं? ये गुफाओं में बैठे हुए लोग, जो कहते हैं हम छोड़ कर आ गए संसार; हमने पत्नी छोड़ दी, तो अब उर्वशी की आकांक्षा कर रहे हैं। कहते हैं हमने दुकान छोड़ दी, धन छोड़ दिया, तो अब स्वर्गों में वृक्षों पर फूल लगते हैं वे हीरे-जवाहरातों के हैं। और पत्ते लगते हैं वे सोने-चांदी के हैं। कंकड़-पत्थर तो वहां होते ही नहीं। राहें भी पटी हैं तो बस मणि-मुक्ताओं से पटी हैं। यही लोग हैं जो दुकानें छोड़ कर भाग गए हैं। इनकी कल्पनाओं का विस्तार तो मौजूद है। और अपने लिए स्वर्ग; और अपने से जो भिन्न हैं या अपने से जो विपरीत हैं, उनके लिए नर्क। जो अपनी मान कर चलें, उनके लिए स्वर्ग। जो अपने से विपरीत धारणाएं रखें, उनके लिए नर्क। और नर्क में भी इन्होंने फिर कष्ट का जितना इंतजाम ये लोग कर सकते थे किया है। हिटलरों को माफ किया जा सकता है, चंगेजखां और तैमूर लंग पीछे पड़ जाते हैं तुम्हारे ऋषि-मुनियों के सामने। नर्क की उन्होंने जो कल्पना की है, वह महा दारुण है। उस कल्पना को करने के लिए भी बड़े दुष्टचित्त लोग चाहिए।
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