महावीर
महावीर के जीवन में बहुत अदभुत उल्लेख है। महावीर युवा हुए और उन्होंने अपनी मां को और अपने पिता को कहा कि अब मैं संन्यासी हो जाना चाहता हूं। तो महावीर की मां ने कहा कि मेरे जीते-जी दुबारा अब यह बात मेरे सामने मत रखना। यह हमारे सुनने के सामर्थ्य के बाहर है। यह मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि मेरा बेटा संन्यासी हो जाए। जब मैं मर जाऊं, तब तुम इस तरह की बात सोच सकते हो, उसके पहले नहीं।
महावीर बड़े अदभुत आदमी रहे होंगे। अगर और संन्यासियों से जाकर पूछें तो उनको हैरानी होगी कि कच्चे संन्यासी रहे होंगे। महावीर राजी हो गए, मां से बोले कि ठीक है।
हमको भी लगेगा कि यह आदमी कैसा है! अरे कहीं संन्यास ऐसे छोड़ा जाता है कि मां ने कह दिया तो! कहेंगे ही लोग! मां कहेगी, पत्नी कहेगी, बेटे कहेंगे, बाप कहेगा कि नहीं-नहीं, मत जाओ। ऐसे कहीं संन्यासी कोई हो सकता है? पहली तो बात यह कि संन्यासियों को पूछना नहीं चाहिए, चुपचाप भाग जाना चाहिए, क्योंकि पूछने का मतलब है, झंझट पड़ेगी। और फिर ऐसा मान लोगे तब तो संन्यास हो गया!
लेकिन महावीर मान गए! उन्होंने मां से कहा कि ठीक है। भाग्य की बात, दो साल बाद मां और पिता दोनों की मृत्यु हो गई। पिता को दफना कर लौटते थे तो अपने बड़े भाई से महावीर ने कहा--रास्ते में ही, अभी मरघट से लौटते हैं--रास्ते में कहा कि अब मैं संन्यासी हो जाऊं? क्योंकि मां और पिता का कहना था कि जब तक वे हैं, बात न करूं तो मैंने बात नहीं की।
भाई ने छाती पीट ली कि तुम पागल हो गए हो! हमारे ऊपर इतनी मुसीबत पड़ी है कि मां-बाप चल बसे और तुम्हें संन्यास की आज ही सूझी! मेरे जिंदा रहते बात मत करना! और महावीर राजी हो गए कि ठीक है।
अब ये भी कोई संन्यासी रहे होंगे। संन्यासियों से पूछें तो वे कहेंगे कि यह तो गड़बड़ आदमी है। यह संन्यासी नहीं है। लेकिन महावीर अदभुत आदमी थे, वे राजी हो गए। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीता, महावीर ने फिर नहीं कहा कि मुझे संन्यास लेना है। बात खत्म हो गई। भाई कहते हैं कि जब तक वे हैं, तो ठीक है।
लेकिन दो वर्ष बीतते-बीतते घर के लोगों को ऐसा लगा कि महावीर हैं तो घर में, लेकिन न के बराबर हैं। वे घर में नहीं हैं। वे थे और नहीं थे। और घर के लोगों को लगा कि उनकी मौजूदगी पता पड़नी ही बंद हो गई है। महीनों बीत जाते और ऐसा नहीं लगता कि वे घर में हैं। वे न किसी बात में दखल देते हैं, न वे कोई आग्रह करते हैं, न वे कोई मांग करते हैं। वे ऐसे हैं जैसे एक छाया की तरह चुपचाप--कब निकल जाते हैं घर के बाहर, कब घर के भीतर आ जाते हैं, कब सो जाते हैं, कब उठ जाते हैं--उनका होने न होने का कोई सवाल ही नहीं रहा।
घर के लोगों ने उनके बड़े भाई को कहा कि महावीर तो संन्यासी हो गया। भाई ने भी कहा कि मैं भी हैरान हूं, ऐसा लगता ही नहीं कि वह घर में है या नहीं। अब उसे रोकने से क्या फायदा? अब कोई मतलब नहीं रहा रोकने का। हम सोचते थे हमने रोक लिया है, लेकिन वह तो जा चुका है। तो घर भर के लोगों ने इकट्ठे होकर महावीर से कहा कि आप तो जा ही चुके हैं, तो अब हमें रोकने में कोई अर्थ नहीं है, अब आपकी जैसी मर्जी। और महावीर घर से चल पड़े!
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