सादगी, Core Of Simplicity
प्रेम की आंख तुम्हारी आंखों में झांकती है, और तुम्हें देखती है। महत्वाकांक्षा की आंख तुम्हारे पास क्या है उसे देखती है, तुम्हें नहीं। प्रेम तुम्हें देखता है--सीधा। महत्वाकांक्षा, पद, अप्रेम तुम्हारे आस-पास के संग्रह को देखता है।
गालिब। बहादुरशाह ने निमंत्रण दिया था। बहादुरशाह की वर्षगांठ थी सिंहासन पर आरूढ़ होने की। तो गालिब के मित्रों ने कहा: ऐसे मत जाओ। इन कपड़ों में तुम्हें वहां कौन पहचानेगा? तुम्हारे काव्य को पहचानने की किसके पास आंख है? तुम्हारे हृदय को मापने का किसके पास तराजू है? तुम्हारे भीतर कौन झांकेगा, किसको फुर्सत है? कपड़े ठीक पहन कर जाओ; यह भिखाराना वेश पसंद नहीं पड़ेगा वहां। और असंभव न होगा कि दरवाजे से वापस लौटा दिए जाओ।
फटे-पुराने कपड़े एक गरीब कवि के! जूतों में छेद, टोपी जरा-जीर्ण! पर गालिब ने कहा कि और तो मेरे पास कोई कपड़े नहीं हैं। मित्रों ने कहा: हम किसी के उधार ले आते हैं। गालिब ने कहा: यह तो बात जमेगी नहीं। उधारी में मुझे जरा भी रस नहीं है। जो मेरा नहीं है वह मेरा नहीं है, जो मेरा है वह मेरा है। नहीं, मुझे बड़ी बेचैनी और असुविधा होगी, उन कपड़ों में मैं बंधा-बंधा अनुभव करूंगा--मुक्त न हो पाऊंगा। किसी और के कपड़े पहन कर क्या जाना। जाऊंगा इसी में, जो होगा होगा। गालिब गए। द्वारपाल से जाकर जब उन्होंने कहा, दूसरों का तो झुक-झुक कर द्वारपाल स्वागत कर रहा था, उनको उसने धक्का देकर किनारे खड़ा कर दिया कि रुक अभी! जब और लोग चले गए तब वह उस पर एकदम टूट पड़ा द्वारपाल, और कहा: अपनी सामर्थ्य को ध्यान में रखना चाहिए, यह राजदरबार है। यहां किसलिए घुसने की कोशिश कर रहा है? तो उन्होंने कहा: घुसने की मैं कोशिश नहीं कर रहा, मुझे निमंत्रण मिला है। खीसे से निमंत्रण-पत्र निकाल कर दिखाया। द्वारपाल ने निमंत्रण-पत्र देख कर कहा कि किसी का चुरा लाया होगा। भाग यहां से, भूल कर इधर मत आना। पागल कहीं का! भिखमंगे हैं, सम्राट होने का खयाल सवार हो गया है।
फटे-पुराने कपड़े एक गरीब कवि के! जूतों में छेद, टोपी जरा-जीर्ण! पर गालिब ने कहा कि और तो मेरे पास कोई कपड़े नहीं हैं। मित्रों ने कहा: हम किसी के उधार ले आते हैं। गालिब ने कहा: यह तो बात जमेगी नहीं। उधारी में मुझे जरा भी रस नहीं है। जो मेरा नहीं है वह मेरा नहीं है, जो मेरा है वह मेरा है। नहीं, मुझे बड़ी बेचैनी और असुविधा होगी, उन कपड़ों में मैं बंधा-बंधा अनुभव करूंगा--मुक्त न हो पाऊंगा। किसी और के कपड़े पहन कर क्या जाना। जाऊंगा इसी में, जो होगा होगा। गालिब गए। द्वारपाल से जाकर जब उन्होंने कहा, दूसरों का तो झुक-झुक कर द्वारपाल स्वागत कर रहा था, उनको उसने धक्का देकर किनारे खड़ा कर दिया कि रुक अभी! जब और लोग चले गए तब वह उस पर एकदम टूट पड़ा द्वारपाल, और कहा: अपनी सामर्थ्य को ध्यान में रखना चाहिए, यह राजदरबार है। यहां किसलिए घुसने की कोशिश कर रहा है? तो उन्होंने कहा: घुसने की मैं कोशिश नहीं कर रहा, मुझे निमंत्रण मिला है। खीसे से निमंत्रण-पत्र निकाल कर दिखाया। द्वारपाल ने निमंत्रण-पत्र देख कर कहा कि किसी का चुरा लाया होगा। भाग यहां से, भूल कर इधर मत आना। पागल कहीं का! भिखमंगे हैं, सम्राट होने का खयाल सवार हो गया है।
गालिब उदास घर लौट आए। मित्रों ने कहा: पहले ही कहा था, और हम जानते थे यह होगा, हम कपड़े ले आए हैं। फिर गालिब ने इनकार न किया। कपड़े पहन लिए--उधार जूते, उधार टोपी-पगड़ी सब, शेरवानी। अब जब पहुंचे द्वार पर, तो द्वारपाल ने झुक कर नमस्कार किया। आत्माओं को तो कोई पहचानता नहीं, आवरण पहचाने जाते हैं। बड़े हैरान हुए, यही द्वारपाल अभी झिड़की देकर अलग कर दिया था, मारने को उतारू हो गया था, अब उसने यह भी न पूछा कि निमंत्रण-पत्र। पर वे थोड़े डरे तो थे ही, पहले अनुभव ने बड़ा दुख दे दिया था; निमंत्रण-पत्र निकाल कर दिखाया। उसने गौर से देखा, और उसने कहा कि ठीक है। एक भिखमंगा इसी निमंत्रण-पत्र को लेकर आ गया था--यही नाम था उस पर--बामुश्किल उससे छुटकारा किया। भीतर गए। बहादुरशाह ने अपने पास बिठाया। बहादुरशाह भी कवि था, काव्य का थोड़ा उसे रस था। लेकिन थोड़ा चकित हुआ, जब भोजन शुरू हुआ तो गालिब बगल में बैठे कुछ बेहूदी हरकत करने लगे। हरकत यह थी कि उन्होंने मिठाइयां उठाईं, अपनी पगड़ी से छुलाईं, कहा कि ले पगड़ी, खा। मिठाइयां उठाईं, अपने कोट से छुलाईं और कहा कि ले कोट, खा। कवि थोड़े झक्की तो होते हैं। सोचा बहादुरशाह ने, होगा, ध्यान नहीं देना चाहिए, शिष्ट संस्कारी आदमी का यह लक्षण है कि दूसरा कुछ ऐसा पागलपन भी करता हो तो इस पर इंगित न करे, घाव न छुए। वह इधर-उधर देखने लगा। लेकिन यह जब लंबी देर तक चलने लगा और गालिब ने भोजन किया ही नहीं, वह यह कपड़ों को ही और जूतों तक को भोजन करवाने लगे, तो फिर बहादुरशाह से न रहा गया--शिष्टाचार की भी सीमा है। उसने कहा: क्षमा करें, उचित नहीं है कि दखलंदाजी दूं, उचित नहीं है कि आपकी निजी आदतों में बाधा डालूं। होगा, आपका कोई रिवाज होगा, कोई क्रियाकांड होगा, मुझे कुछ पता नहीं, आपका कोई धर्म होगा। मगर उत्सुकतावश मैं पूछना चाहता हूं कि आप कर क्या रहे हैं? ये कपड़े-कोट, जूता-पगड़ी इसको भोजन करवा रहे हैं?
गालिब ने कहा कि गालिब तो पहले भी आया था, उसे वापस लौटा दिया गया। वह फिर नहीं आया। अब तो कोट-कपड़े आए हैं--ये भी उधार हैं। इन्हीं को प्रवेश मिला है, इन्हीं को भोजन करवा रहा हूं। मुझे तो प्रवेश मिला नहीं, इसलिए भोजन करना उचित न होगा। तब गालिब ने पूरी कहानी बहादुरशाह को कही, कि क्या हुआ है।
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