मोह
'स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।'
मोह का अर्थ है: तुमने अपने प्राण अपने से हटा कर कहीं और रख दिए हैं। किसी ने अपने बेटे में रख दिए हैं; किसी ने अपनी पत्नी में रख दिए हैं; किसी ने धन में रख दिए हैं; किसी ने पद में रख दिए हैं लेकिन प्राण कहीं और रख दिए हैं। जहां होना चाहिए प्राण वहां नहीं हैं। तुम्हारे भीतर प्राण नहीं धड़क रहा है, कहीं और धड़क रहा है। तब तुम मुसीबत में रहोगे। यही मोह संसार है; क्योंकि जहां-जहां तुमने प्राण रख दिए, उनके तुम गुलाम हो जाओगे। मोह के आवरण का अर्थ होता है: तुम्हारी आत्मा कहीं और बंद है। वह पत्नी में हो, धन में हो, पद में हो, वह कहीं भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारी आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है, मोह का यह अर्थ है। और शाश्वत, स्थायी रूप से मोह-जय का अर्थ है कि तुमने सारी परतंत्रता छोड़ दी। अब तुम किसी और पर निर्भर होकर नहीं जीते; तुम्हारा जीवन अपने में निर्भर है। तुम स्वकेंद्रित हुए। तुमने अपने अस्तित्व को ही अपना केंद्र बना लिया। अब पत्नी न रहे, धन न रहे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा--वे ऊपर की लहरें हैं--तो भी तुम उद्विग्न न हो जाओगे। सफलता रहे कि विफलता, सुख आए कि दुख, कोई अंतर न पड़ेगा। क्योंकि अंतर पड़ता था इसलिए कि तुम उन पर निर्भर थे। मोह-जय का अर्थ है: परम स्वतंत्र हो जाना; मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं--ऐसी प्रतीति; मैं अकेला काफी हूं, पर्याप्त हूं--ऐसी तृप्ति। मेरा होना पूरा है, ऐसा भाव मोह-जय है। जब तक दूसरे के होने पर तुम्हारा होना निर्भर है, तब तक मोह पकड़ेगा; तब तक तुम दूसरे को जकड़ोगे, वह कहीं छूट न जाए, कहीं खो न जाए रास्ते में; क्योंकि उसके बिना तुम कैसे रहोगे!
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