अप्राकृतिक

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एक भिक्षुणी थी- बौद्ध भिक्षुणी। उसके पास एक छोटी सी बुद्ध की चंदन की प्रतिमा थी। वह अपने बुद्ध को सदा अपने साथ रखती थी। भिक्षुणी थी, मंदिरों में, विहारों में ठहरती थी, लेकिन पूजा अपने ही बुद्ध की करती थी। एक बार वह उस मंदिर में ठहरी जो हजार बुद्धों का मंदिर है, जहां हजार बुद्ध-प्रतिमाएं हैं, जहां मंदिर के कोने-कोने में प्रतिमाएं ही प्रतिमाएं हैं। वह सुबह अपने बुद्ध को रख कर पूजा करने बैठी, उसने धूप जलाई। अब धूप तो कोई आदमी के नियम मानती नहीं! उलटा ही हो गया। हवा के झोंके ऐसे थे कि उसके छोटे से बुद्ध की नाक तक तो धूप की सुगंध न पहुंचे और पास जो बड़ी-बड़ी बुद्ध की प्रतिमाएं बैठी थीं, उन तक सुगंध पहुंचने लगी। वह तो बहुत चिंतित हुई। ऐसा नहीं चल सकता है! तो उसने एक छोटी सी टीन की पोंगरी बनाई और अपने धूप पर ढांकी और अपने छोटे से बुद्ध की नाक के पास चिमनी का द्वार खोल दिया, ताकि धूप की सुगंध अपने ही बुद्ध को मिले। सुगंध तो मिल गई अपने बुद्ध को, लेकिन बुद्ध का मुंह काला हो गया। वह बड़ी मुश्किल में पड़ी, चंदन की प्रतिमा थी, वह सब खराब हो गई। उसने जाकर मंदिर के पुजारी को कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। मेरे बुद्ध की प्रतिमा खराब हो गई, कुरूप हो गई, अब मैं क्या करूं? तो उस पुजारी ने कहा कि जब भी कोई उन सत्यों को, जो सब तरफ फैलते हैं, एक दिशा में बांधता है, तब ऐसी ही दुर्घटना और ऐसी ही कुरूपता हो जाती है।

प्रेम जितना फैलता है, उतना बढ़ता है। और प्रेम जितना बंटता है, उतना बढ़ता है। और जब हम प्रेम को एक ही धारा में बहाने की बहुत चेष्टा करते हैं, जो कि अनैसर्गिक है, अप्राकृतिक है, जोर-जबरदस्ती है, तो अंतिम परिणाम सिर्फ इतना ही होता है कि और कहीं तो प्रेम नहीं बहता, जहां हम बहाना चाहते हैं वहां भी नहीं बहता है।


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