निर्विषय चित्त

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जि
स चित्त में विषयों की तरंगें नहीं उठती हैं। और विषयासक्तं का भी अर्थ हमने गलत किया। विषय में आसक्ति का यह अर्थ नहीं होता कि विषय से भाग जाओ। क्योंकि भागने से आसक्ति नहीं मिटेगी। अगर ऐसा होता तो गरीबों को महलों में कोई आसक्ति न होती। अगर ऐसा होता तो गरीबों को धन में कोई आसक्ति न होती। अगर ऐसा होता तो दीन-दरिद्र धन्यभागी थे! अभागे थे वे जो दीन-दरिद्र नहीं हैं।

मगर सचाई उलटी है। सचाई यह है कि धन के अनुभव से आदमी की आसक्ति छूटती है। और विषय के अनुभव से विषय से मुक्ति होती है। क्योंकि अनुभव कर-कर के पाया जाता है: कुछ भी तो नहीं, हाथ कुछ भी तो नहीं लगता। हाथ खाली के खाली रह जाते हैं। वही झोली खाली की खाली। विषय के अनुभव से आदमी अपने आप निर्विषय होता है। सिर्फ जागरूकता से विषय का अनुभव करना है। बस जागरूकता की शर्त जुड़ जाए तो तुम निर्विषय हो जाओगे। जागरूकता का एक सूत्र समझ लो तो विचार से निर्विचार हो जाओगे, मन से अ-मन हो जाओगे।

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