आहार - सत्व आच्छादन

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आहार की शुद्धि होने पर सत्व की शुद्धि होती है। आहार का अर्थ है: जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। जो भीतर है, वह सत्व। जो स्वरूप है, वह सत्व। और जो उस पर आच्छादित होता है, वह आहार। इसलिए आहार से भोजन मात्र न समझना। भोजन तो आहार का एक छोटा-सा अंग है--और वह बहुत महत्वपूर्ण भी नहीं, बहुत गौण अंग है। जो भी हम बाहर से भीतर लेते हैं--कान से ध्वनि, शब्द, आंख से रूप, नाक से गंध, हाथ से स्पर्श--हमारी पांचों इंद्रियां पांच द्वार हैं, जिनसे हम बाहर के जगत को भीतर आमंत्रित करते हैं। प्रत्येक इंद्रिय का आहार है। अस्सी प्रतिशत आहार तो हम आंख से लेते हैं, बीस प्रतिशत शेष चार इंद्रियों से। इसमें जो हम जिह्वा से लेते हैं--भोजन, स्वाद--वह तो अति गौण है। मगर नासमझों के कारण गौण प्रमुख हो गया है। कुछ पागल अपना पूरा जीवन इसी चिंता में व्यतीत करते हैं--क्या खाएं, क्या न खाएं; क्या पीएं, क्या न पीएं; कितनी देर रखा हुआ दूध पी सकते हैं या नहीं; कितनी देर का घी ले सकते हैं या नहीं। लेकिन आहार का बड़ा व्यापक अर्थ है। साफ है आहार का अर्थ, जिसे बाहर से भीतर लिया जाए--आहार। कैसे इसकी शुद्धि हो? आहार तो करना ही होगा। आंखें देखेंगी ही; कम देखें ज्यादा देखें, लेकिन देखेंगी ही। तो वही देखना जो देखने योग्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आल्हादित करता है।लेकिन लोग गलत चीजें देखते हैं। अगर रास्ते पर दो व्यक्ति कुश्तम-कुश्ती कर रहे हों, दंगा-फसाद कर रहे हों, वाह गुरु जी की फतह बोल रहे हों, तो देखो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। मुफ्त तमाशा कौन न देखे! सर्कस हो रहा है। और जब भी दो पुरुष लड़ते हैं तो हैरानी की बात है, लड़ते पुरुष हैं मगर गालियां स्त्रियों को देते हैं। वह उसकी मां को ठीक कर रहा है, वह उसकी बहन को ठीक कर रहा है, वह उसकी बेटी को ठीक कर रहा है। यह भी थोड़ी सोचने जैसी बात है कि यह समाज बातें तो करता है स्त्री-समादर की, मगर यह समादर है! बातें तो यूं की जाती हैं कि जहां-जहां नारी की पूजा होती है वहां-वहां देवता रमण करते हैं। और स्त्री की पूजा के नाम पर हो क्या रहा है? सदियों से क्या हो रहा है? सिवाय अपमान और अनादर के कुछ भी नहीं। अगर दो आदमी लड़ रहे हैं तो एक-दूसरे से निपटो, इसमें स्त्रियों को बीच में लाने की क्या जरूरत है? इसमें किसी की मां ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? किसी की पत्नी ने, किसी की बेटी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? लेकिन गाली तो स्त्रियों को ही दी जाएगी, लड़े कोई। अपमान तो स्त्री का ही होगा, लड़े कोई। और तुम खड़े होकर यूं पीते हो, जैसे अमृत मिल गया हो! जहां झगड़ा हो रहा हो वहां क्या तुम सोचते हो कोई आदमी झपकी ले ले, नींद में चला जाए? कभी नहीं। धर्म-सभा में लोग नींद में जाते हैं। शास्त्र सुनते हैं तो नींद आती है। माला फेरते हैं तो झपकी खाते हैं। लेकिन दो आदमी गालियां दे रहे हों, तो सोए हुओं की तो बात छोड़ दो, मुर्दों को भी अगर पता चल जाए तो उठ कर खड़े हो जाएं! कि जरा देख लें फिर सो जाएंगे कब्र में, ऐसी जल्दी क्या है? यह मजा तो और देख लें जाते-जाते! कोई यह नहीं सोचता कि जब तुम दो आदमियों को लड़ते हुए देखोगे तो तुम हिंसा का आहार कर रहे हो। तुम अपने भीतर गाली-गलौज ले जा रहे हो। वे दोनों आदमी गालियां बक रहे हैं, अभद्र व्यवहार कर रहे हैं, अशोभन शब्द बोल रहे हैं। एक-दूसरे की निंदा सुन रहे हैं--झूठी। और कोई संदेह नहीं उठाता। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिससे तुम किसी की निंदा करो और वह संदेह उठाए। हां, प्रशंसा करो तो हर एक संदेह उठाएगा। कहो किसी से कि फलां व्यक्ति बड़ा साधु-चरित्र। और दूसरा आदमी तत्क्षण बोलेगा, छोड़ो भी, किन बातों में पड़े हो! अरे, यह कलियुग है! हो गए साधु सतयुग में, अब नहीं होते! सब पाखंडी हैं! सब धोखेबाज हैं। सब लूट-खसोट में लगे हैं। अरे, हर ढोल में पोल है। हजार बातें कहेगा वह आदमी। तुमने सिर्फ इतना ही कहने की भूल की थी कि फलां आदमी साधु है। एक से एक बातें वह निकालेगा, बात में से बातें निकालता जाएगा। और अगर तुम किसी आदमी की निंदा करो तो कोई इनकार न करेगा। यूं पी जाएगा जैसे प्यासा आदमी धूप से थका-मांदा ठंडा जल पी जाए, यूं पी जाएगा। इनकार ही न करेगा। कभी न कहेगा कि भाई, ऐसी निंदा पर मुझे भरोसा नहीं आता, वह आदमी इतना बुरा नहीं हो सकता। किसी की प्रशंसा करो, और तुम तत्क्षण पाओगे कि कोई तुम्हारी बात को मानने को राजी नहीं है। लोग प्रमाण मांगेंगे। और किसी की निंदा करो, और तत्क्षण लोग अंगीकार करने को राजी हैं: न प्रमाण कोई मांगता, न इनकार कोई करता। ये हमारे आहार के ढंग हैं। अशुद्ध को तो हम आहार कर लेते हैं और शुद्ध को हम इनकार करते हैं। सदियों-सदियों तक संदेह जारी रहते हैं।

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