पड़ाव

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मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारां-ओ-शबाब
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर में रूह आ जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना
तलिस्मरेशमो-अतलसो-कमखाब में बुनवाए हुए
जां-ब-जां बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

तुम जिंदगी को अनुभव करो--उसके सारे फूल, उसके सारे कांटे; उसके सारे दिन, उसकी सारी रातें; उसके सारे सुख, उसके सारे दुख। चुनाव नहीं किया जा सकता! कोई यह कहे कि मैं तो फूल ही फूल का अनुभव करूंगा, कांटों का नहीं; कि मैं तो दिन ही दिन जीऊंगा, रातें नहीं; कि मैं तो सफलताएं ही भोगूंगा, विफलताएं नहीं; तो ऐसा व्यक्ति जीवन के अनुभव से वंचित रह जाएगा।

ये तो जीवन के दोनों पहलू हैं। यहां हर चीज जो आशा में शुरू होती है, निराशा में परिणत हो जाती है। यहां हर सुबह सांझ होती है। यहां जिंदगी के सब सुख धीरे-धीरे कड़वे हो जाते हैं और दुख बन जाते हैं। यह सारा अनुभव जरूरी है। यही अनुभव पकाता है। इसी अनुभव की आंच में जो पकता है, एक दिन मन से मुक्त हो पाता है। वह पक जाना ही मुक्ति है।

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