मुक्ति

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जो सबको मुक्ति बना लेता है। उसके लिए बंधन भी मुक्ति हो जाते हैं, हमारे लिए मुक्ति भी बंधन है। यह हमारे होने के ढंग पर निर्भर करता है। 

एक विद्रोही फकीर को, एक सूफी को किसी खलीफा ने कारागृह में डाल दिया। उसके हाथों पर जंजीरें डाल दीं, उसके पैरों में बेड़ियां डाल दीं और वह सूफी, वह फकीर जो निरंतर स्वतंत्रता के गीत गाता था, जेल के सींखचों में डाल दिया गया। सम्राट, वह खलीफा उससे मिलने गया। और उसने पूछा कि कोई तकलीफ तो नहीं है? तो उस फकीर ने कहा, तकलीफ कैसी? शाही मेहमान को तकलीफ कैसे हो सकती है! आप मेजबान, आप होस्ट, तकलीफ कैसे हो सकती है! हम बड़े आनंद में हैं। झोपड़े से महल में ले आए। उस सम्राट ने कहा, मजाक तो नहीं करते हो? उस फकीर ने कहा, जिंदगी को मजाक समझा, इसीलिए ऐसा कह पाते हैं। और उसने कहा कि ये जंजीरें बहुत बोझिल तो नहीं हैं? ये जंजीरें कोई पीड़ा तो नहीं देतीं? तो उस फकीर ने जंजीरों को गौर से देखा और उसने कहा कि मुझसे बहुत दूर हैं। मेरे और इन जंजीरों के बीच बड़ा फासला है। सो तुम इस भ्रम में होओगे कि तुमने मुझे कारागृह में डाला, लेकिन मेरी मुक्ति को तुम कारागृह नहीं बना सकते, क्योंकि मैं कारागृह को भी मुक्ति बना सकता हूं। इस पर ही सब निर्भर करता है कि हम कैसे देखते हैं। उस फकीर ने कहा, बड़ा फासला है इन जंजीरों में और मुझमें। और तुम कैसे मुझ पर जंजीरें डालोगे?

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